________________ बौद्धपरम्परा में इच्छापूर्वक मृत्यु को वरण करने वाले साधकों का संयुक्तनिकाय में समर्थन भी किया है। सीठ, मप्पदास, गोधिक, भिक्षुवक्कली४, कुलपुत्र और भिक्षुछन्न५५, ये असाध्य रोग से ग्रस्त थे / उन्होंने अात्महत्याएं की। तथागत बुद्ध को ज्ञात होने पर उन्होंने अपने संध को कहा-ये भिक्षु निर्दोष हैं। इन्होंने आत्महत्या कर परिनिर्वाण को प्राप्त किया है। आज भी जापानी बौद्धों में हाराकोरी (स्वेच्छा से शस्त्र के द्वारा अात्महत्या) की प्रथा प्रचलित है। बौद्धपरम्परा में शस्त्र के द्वारा उसी क्षण मृत्यु को घरण करना श्रेष्ठ माना है। जैनपरम्परा ने इस प्रकार मरना अनुचित माना है, उसमें मरने की आतुरता रही हुई है। वैदिकपरम्परा के ग्रन्थों में आत्महत्या को महापाप माना है / पाराशरस्मृति में उल्लेख हैं--क्लेश, भय, घमण्ड, क्रोध आदि के वशीभूत होकर जो आत्महत्या करता है, वह व्यक्ति 60 हजार वर्ष तक नरक में निवास करता है।८६ महाभारत की दृष्टि से भी प्रात्महत्या करने वाला कल्याणप्रद लोक में नहीं जा सकता। वाल्मीकि रामायण८८, शांकरभाष्य, बृहदारण्यकोपनिषद्', महाभारत', आदि ग्रन्थों में आत्मघात को अत्यन्त हीन माना है। जो आत्मघात करते हैं, उनके सम्बन्ध में मनुस्मृति , याज्ञवल्क्य 3, उषन्स्मृति, कर्मपुराण", अग्निपुराण 6, पाराशरस्मृति 7 प्रादि ग्रन्थों में बताया है कि उन्हें जलाञ्जलि भी नहीं देनी चाहिए। जहां एक ओर अात्मघात को निंद्य माना है तो दूसरी ओर विशेष पापों के प्रायश्चित्त के रूप में आत्मघात का समर्थन भी किया है, जैसे मनुस्मृति में आत्मघाती, मदिरापायी ब्राह्मण, गुरुपत्नीगामी को उग्र शस्त्र, 54. संयुक्तनिकाय-२१-२-४-५. 85. (क) संयुक्तनिकाय-३४-२-४-४ (ख) History of Suicide in India --Dr. Upendra Thakur p.107 86. अतिमानादतिक्रोधात्स्नेहाद्वा यदि वा भयात् / उद्बधनीयात्स्त्री पुमान्वा गतिरेषा विधीयते / / पूयशोणितसम्पूर्ण अन्धे तमसि मज्जति / ष्टिवर्षसहस्राणि भरकं प्रतिपद्यते // -पाराशरस्मृति 4-1-2 87. महाभारत, प्रादिपर्व 179, 20. 88. वाल्मीकि रामायण 83,83 89. आत्ममं ननन्तीत्यात्महनः / के ते जनाः येऽविद्वांस............."अविद्यादोषेण विद्यमानस्यात्मनस्तिरस्कर णात..........."प्राकृतविद्वांसो आत्महन उच्यन्ते / 90. बृहदारण्यकोपनिषद् 4, 4-11 91. महाभारत, ग्रादिपर्व 175-20 92. मनुस्मृति 5, 89 93. याज्ञवल्क्य 3, 6 94. उषन्स्मृति 7. 2 95. कूर्म पुगण, उत्त. 23-73 96. अग्निपुराण 157-32 97. पाराशरस्मृति 4,4-7 [ 39 ] Jain Education International For Private & Personal Use Only *www.jainelibrary.org