Book Title: Agam 12 Upang 01 Auppatik Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Devendramuni, Ratanmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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औपपातिकसूत्र विकुस-विसुद्ध-रुक्खमूले, मूलमंते, कंदमंते, जाव (खंधमंते, तयामते, सालमंते, पवालमंते, पत्तमंते, पुष्फमंते, फलमंते, बीयमंते, अणुपुव्वसुजायरुइलवट्टे भावपरिणए, एक्कखंधे, अणेगसाले, अणेगसाहप्पसाहविडिमे, अणेगनरवामसुष्पसारिय-अग्गेझघणविउलबद्धखंधे, अच्छिद्दपत्ते, अविरलपत्ते, अवाईणपत्ते, अणईअपत्ते, निद्धयजरढपंडुपत्ते, णव-हरिय-भिसंत-पत्तभारंधयारगंभीरदरिसणिजे, उवणिग्गय-णवतरुण-पत्तपल्लव-कोमलउज्जलचलंत-किसलय-सुकुमालपवाल-सोहियवरंकुरग्गसिहरे, णिच्चं कुसुमिए, णिच्चं माइए, णिच्चं लवइए, णिच्चं थवइए, णिच्चं गुलइए, णिच्चं गोच्छिए, णिच्चं जमलिए, णिच्चं जुवलिए, णिच्चं विणमिए, णिच्चं पणमिए, णिच्चं कुसुमिय-माइय-लवइय-थवइय-गुलइय-गोच्छियजमलिय-जुवलिय-विणमिय-पणमिय-सुविभत्तपिंडमंजरिवडिंसयधरे, सुय-वरहिण-मयणसाल-कोइलकोभगक-भिंगारग-कोंडलग-जीवंजीवग-णंदीमुह-कविलपिंगलक्खग-कारंड-चक्कवाय-कलहंस-सारसअणेगसउणिगणमिहुणविरइयसदुण्णइयमहुरसरणाइए, सुरम्मे, संपिंडिय-दरिय-भमर-महुयरिपहकरपरिलिंतमत्तछप्पयकुसुमासवलोलमहुरगुमगुमंतगुंजंतदेसभाए, अभितर-पुप्फफले, बाहिरपत्तोच्छण्णे, पत्तेहि य पुप्फेहि य ओच्छन्नपडिवलिच्छण्णे, साउफले, निरोयए, अकंटए, णाणाविहगुच्छगुम्ममंडवगरम्मसोहिए विचित्तसुहकेउभूए वावीपुक्खरिणीदीहियासु य सुनिवेसिय-रम्मजालहरए पिंडिमणीहारिमं सुगंधिं सुहसुरभिमणहरं च महया गंधद्धणिं च मुयंते, णाणाविहगुच्छ-गुम्म-मंडवग-घरगसुहसेउकेउबहुले, अणेगरह-जाण-जुग्ग-सिविय-परिमोयणे), सुरम्मे, पासादीए, दरिसणिजे अभिरूवे, पडिरूवे।
___ उस वन-खण्ड के ठीक बीच के भाग में एक विशाल एवं सुन्दर अशोक वृक्ष था। उसकी जड़ें डाभ तथा दूसरे प्रकार के तृणों से विशुद्ध-रहित थीं। (वह वृक्ष उत्तम मूल—जड़ों के ऊपरी भाग, कन्द-भीतरी भाग, जहाँ से जड़ें फूटती हैं; स्कन्ध तना, छाल, शाखा, प्रवाल—अंकुरित होते पत्ते, पत्र, पुष्प, फल तथा बीज सम्पन्न था। वह क्रमशः आनुपातिक रूप में सुन्दर तथा गोलाकार विकसित था। उसमें एक अविभक्त तना तथा अनेक शाखाएँ थीं। उसका मध्य भाग अनेक शाखाओं और प्रशाखाओं का विस्तार लिये हुए था। उसका सघन, विस्तृत तथा सुघड़ तना अनेक मनुष्यों द्वारा फैलाई हुई भुजाओं से भी गृहीत नहीं किया जा सकता था—घेरा नहीं जा सकता था। उसके पत्ते छेदरहित, अविरल—घने एक दूसरे से मिले हुए, अधोमुख नीचे की ओर लटकते हुए तथा उपद्रव-रहित थे। उसके पुराने, पीले पत्ते झड़ गये थे। नये, हरे, चमकीले पत्तों की सघनता से वहाँ अंधेरा तथा गम्भीरता दिखाई देती थी। नवीन, परिपुष्ट पत्तों, कोमल, उज्ज्वल तथा हिलते हुए किसलयों पूरी तरह नहीं पके हुए पत्तों, प्रवालों ताम्र वर्ण के नये निकलते पत्तों से उसका उच्च शिखर सुशोभित था।
वह सब ऋतुओं में फूलों, मंजरियों, पत्तों, फूलों के गुच्छों, गुल्मों लता-कुंजों तथा पत्तों के गुच्छों से युक्त रहता था। वह सदा समश्रेणिक तथा युगल-रूप में दो-दो के जोड़े के बीच अवस्थित था। वह पुष्प, फल आदि के भार से सदा विनमित—बहुत झुका हुआ, प्रणमित—विशेष रूप से अभिनत—नमा हुआ था।
यों विविध प्रकार से अपनी विशेषताएँ लिये हुए वह वृक्ष अपनी सुन्दर लुम्बियों तथा मंजरियों के रूप में मानो शिरोभूषण–कलंगियाँ धारण किए रहता था। तोते, मोर, मैना, कोयल, कोभगक, भिंगारक, कोण्डलक, चकोर, नन्दिमुख, तीतर, बटेर, बतख, चक्रवाल, कलहंस, सारस प्रभृति पक्षियों द्वारा की जाती आवाज के उन्नत