Book Title: Agam 12 Upang 01 Auppatik Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Devendramuni, Ratanmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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औपपातिकसूत्र
भावप्रकाश में आगे बताया गया है कि चार आढक का एक द्रोण होता है। उसको कलश, नल्वण, अर्मण, उन्मान, घट तथा राशि भी कहा जाता है। दो द्रोण का एक शूर्प होता है, उसको कुंभ भी कहा जाता है तथा ६४ शराव का होने से चतुःषष्टि शरावक भी कहा जाता है।'
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८१ — ते णं परिव्वायगा एयारूवेणं विहारेणं विहरमाणा बहूइं वासाइं परियायं पाउणंति, बहूई वासाइं परियायं पाउणित्ता कालमासे कालं किच्चा उक्कोसेणं बंभलोए कप्पे देवत्ताए उववत्तारो भवति । तर्हि तेसिं गई, तहिं तेसिं ठिई। दस सागरोवमाइं ठिई पण्णत्ता, सेसं तं चेव ।
८१ - वे परिव्राजक इस प्रकार के आचार या चर्या द्वारा विचरण करते हुए, बहुत वर्षों तक परिव्राजकपर्याय का—परिव्राजक-धर्म का पालन करते हैं। बहुत वर्षों तक वैसा कर मृत्युकाल आने पर देह त्याग कर उत्कृष्ट ब्रह्मलोक कल्प में देव रूप में उत्पन्न होते हैं। तदनुरूप उनकी गति और स्थिति होती है। उनकी स्थिति या आयुष्य दस सागरोपम कहा गया है। अवशेष वर्णन पूर्ववत् है ।
अम्बड़ परिव्राजक के सात सौ अन्तेवासी
८२ — तेणं कालेणं तेणं समएणं अम्मडस्स परिव्वायगस्स सत्त अंतेवासिसयाई गिम्हकालसमयंसि जेट्ठामूलमासंमि गंगाए महानईए उभओकूलेणं कंपिल्लपुराओ णयराओ पुरिमतालं णयरं संपट्ठिया विहाराए ।
८२ – उस काल — वर्तमान अवसर्पिणी के चौथे आरे के अन्त में, उस समय जब भगवान् महावीर सदेह विद्यमान थे, एक बार जब ग्रीष्मऋतु का समय था, जेठ का महीना था, अम्बड़ परिव्राजक के सात सौ अन्तेवासी -
१.
षड्भिस्तु रक्तिकाभिः स्यान्माषको हेमधानकौ । माषैश्चतुर्भिः शाणः स्याद्धरणः स निगद्यते ॥ टङ्क स एव कथितस्तद्द्वयं कोल उच्चते । क्षुद्रको वटकश्चैव द्रङ्क्षणः स निगद्यते ॥ शरावाभ्यां भवेत्प्रस्थश्चतुः प्रस्थस्तथाऽऽढकः । भाजनं कांस्यपात्रं च चतुःषष्टिपलश्च सः ॥ कोलद्वयन्तु कर्षः स्यात्स प्रोक्तः पाणिमानिका । अक्षः पिचुः पाणितलं किञ्चित्पाणिश्च तिन्दुकम् ॥ विडालपदकं चैव तथा षोडशिका मता । करमध्यो हंसपदं सुवर्ण कवलग्रहः ॥
उदुम्बरञ्च पर्यायैः कर्षमेव निगद्यते । स्यात्कर्षाभ्यामर्द्धपलं शुक्तिरष्टमिका तथा । शुक्तिभ्याञ्च पलं ज्ञेयं मुष्टिराम्रं चतुर्थिका । प्रकुञ्चः षोडशी बिल्वं पलमेवात्र कीर्त्यते ॥ पलाभ्यां प्रसृतिर्ज्ञेया प्रसृतञ्च निगद्यते । प्रसृतिभ्यामञ्जलिः स्यात्कुडवोऽर्द्धशरावकः ॥ अष्टमानञ्च स ज्ञेयः कुडवाभ्याञ्च मानिका । शरावोऽष्टपलं तद्वज्ज्ञेयमत्र विचक्षणैः ॥
भावप्रकाश, पूर्व खण्ड,
चतुर्भिराढकैर्द्रोणः कलशो नल्वणोऽर्मणः । उन्मानञ्च घटो राशिद्रोणपर्यायसंज्ञितः ॥ शूर्पाभ्याञ्च भवेद् द्रोणी वाहो गोणी च सा स्मृता । द्रोणाभ्यां शूर्पकुम्भौ च चतुःषष्टिशरावकः ॥
द्वितीय भाग,
भावप्रकाश, पूर्व खण्ड,
द्वितीय भाग,
मानपरिभाषा प्रकरण २-४
मानपरिभाषा प्रकरण १५, १६