Book Title: Agam 12 Upang 01 Auppatik Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Devendramuni, Ratanmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 188
________________ अम्बड के उत्तरवर्ती भव १४५ दिन चन्द्र-सूर्य-दर्शनिका नामक जन्मोत्सव करेंगे। छठे दिन जागरिका–रात्रि-जागरिका करेंगे। ग्यारहवें दिन वे अशुचि-शोधन विधान से निवृत्त होंगे। इस बालक के गर्भ में आते ही हमारी धार्मिक आस्था दृढ़ हुई थी, अतः यह 'दृढ़प्रतिज्ञ' नाम से सम्बोधित किया जाय, यह सोचकर माता-पिता बारहवें दिन बालक का 'दृढ़प्रतिज्ञ' यह गुणानुगत, गुणनिष्पन्न नाम रखेंगे। १०६-तं दढपइण्णं दारगं अम्मापियरो साइरेगट्ठवासजायगं जाणित्ता सोभणंसि तिहि-करणदिवस-णक्खत्त-मुहत्तंसि कलायरियस्स उवणेहिंति। १०६- माता-पिता यह जानकर कि अब बालक आठ वर्ष से कुछ अधिक का हो गया है, उसे शुभ-तिथि, शुभ करण, शुभ दिवस, शुभ नक्षत्र एवं शुभ मुहूर्त में शिक्षण हेतु कलाचार्य के पास ले जायेंगे। १०७ - तए णं से कलायरिए तं दढपइण्णं दारगं लेहाइयाओ, गणियप्पहाणाओ, सउणरुयपजवसाणाओ वावत्तरिकलाओ सुत्तओ य अत्थओ य करणओ य सेहाविहिति, सिक्खाविहिति, तं जहा लेहं, गणियं, रूवं, णटुं, गीयं, वाइयं, सरगयं, पुक्खरगयं, समतालं, जूयं, जणवायं, पासगं, अट्ठावयं, पोरेकच्चं, दगमट्टियं, अण्णविहिं, पाणविहिं, वत्थविहि, विलेवणविहिं, सयणविहिं, अजं, पहेलियं, मागहियं, गाहं, गीइयं, सिलोयं, हिरण्णजुत्तिं, सुवण्णजुत्तिं, गंधजुत्तिं, चुण्णजुत्तं, आभरण-विहि, तरुणीपडिकम्म, इत्थिलक्खणं, पुरिसलक्खणं, हयलक्खणं, गयलक्खणं, गोणलक्खणं, कुक्कुडलक्खणं, चक्कलक्खणं, छत्तलक्खणं, चम्मलक्खणं, दंडलक्खणं, असिलक्खणं, मणिलक्खणं, कागणिलक्खणं, वत्थुविजं, खंधारमाणं, नगरमाणं, वत्थुनिवेसणं, वूहं, पडिवूहं, चारं, पडिचारं, चक्कवूहं, गरुलवूहं, सगडवूहं, जुद्धं, निजुद्धं, जुद्धाइजुद्धं, मुट्ठिजुद्धं, बाहूजुद्धं, लयाजुद्धं, इसत्थं, छरुप्पवाहं, धणुव्वेयं, हिरण्णपागं, सुवण्णपागं, वट्टखेड्डु, सुत्ताखेड्डे, णालियाखेड्डु, पत्तच्छेज्जं, कडगच्छेज्जं, सजीवं, निजीवं, सउणरुयमिति बावत्तरिकलाओ सेहावित्ता, सिक्खावेत्ता अम्मापिईणं उवणेहिति। १०७– तब कलाचार्य बालक दृढ़प्रतिज्ञ को लेख एवं गणित से लेकर पक्षिशब्दज्ञान तक बहत्तर कलाएँ सूत्ररूप में सैद्धान्तिक दृष्टि से, अर्थ रूप में व्याख्यात्मक दृष्टि से, करण रूप में प्रयोगात्मक दृष्टि से सधायेंगे, सिखायेंगे—अभ्यास करायेंगे। वे बहत्तर कलाएँ इस प्रकार हैं १. लेख–लेखन अक्षरविन्यास, तद्विषयक कला, २. गणित, ३. रूप—भित्ति, पाषाण, वस्त्र, रजत, स्वर्ण, रत्न आदि पर विविध प्रकार का चित्रांकन, ४. नाट्य अभिनय, नाच, ५. गीत-गान्धर्व-विद्या संगीतविद्या, ६. वाद्य वीणा, दुन्दुभि, ढोल आदि स्वर एवं ताल सम्बन्धी वाद्य (साज) बजाने की कला, ७. स्वरगतनिषाद, ऋषभ, गान्धार, षड्ज, मध्यम, धैवत तथा पञ्चम–इन सात स्वरों का परिज्ञान, ८. पुष्करगत-मृदंग वादन की विशेष कला, ९. समताल—गान व ताल के लयात्मक समीकरण का ज्ञान, १०. द्यूत-जुआ खेलने की कला, ११. जनवाद–लोगों के साथ वार्तालाप करने की दक्षता अथवा वाद-विवाद करने में निपुणता, १२. पाशक-पासा फेंकने की विशिष्ट कला, १३. अष्टापद—विशेष प्रकार की द्यूत-क्रीडा, १४. पौरस्कृत्य-नगर की रक्षा, व्यवस्था आदि का ज्ञान (अथवा पुर:काव्य-आशुकवित्व-किसी भी विषय पर तत्काल कविता रचने की कला), १५.

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