Book Title: Agam 12 Upang 01 Auppatik Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Devendramuni, Ratanmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 212
________________ सिद्धों का स्वरूप एवं सिद्धमान के संहनन संस्थान आदि सिद्धों का स्वरूप १५४- ते णं तत्थ सिद्धा हवंति सादीया, अपजवसिया, असरीरा, जीवघणा, दंसणनाणोवउत्ता, निट्ठियट्ठा, निरेयणा, नीरया, णिम्मला, वितिमिरा, विसुद्धा सासयमणागयद्धं कालं चिटुंति। १५४– वहाँ लोकाग्र में सादि-मोक्ष-प्राप्ति के काल की अपेक्षा से आदिसहित, अपर्यवसित—अन्तरहित, अशरीर-शरीररहित, जीवघन-घनरूप सघन अवगाढ आत्मप्रदेश युक्त, ज्ञानरूप साकार तथा दर्शन रूप अनाकार उपयोग सहित, निष्ठितार्थ कृतकृत्य, सर्व प्रयोजन समाप्त किये हुए, निरेजन-निश्चल, स्थिर या निष्प्रकम्प, नीरज-कर्मरूप रज से रहित—बध्यमान कर्मवर्जित, निर्मल—मलरहित—पूर्वबद्ध कर्मों से विनिर्मुक्त, वितिमिरअज्ञानरूप अन्धकार रहित, विशुद्ध—परम शुद्ध कर्मक्षयनिष्पन्न आत्मशुद्धियुक्त सिद्ध भगवान् भविष्य में शाश्वतकाल पर्यन्त (अपने स्वरूप में) संस्थित रहते हैं। १५५-से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ ते णं तत्थ सिद्धा भवंति सादीया, अपजवसिया जाव (असरीरा, जीवघणा, दंसणनाणोवउत्ता, निट्ठियट्ठा, निरयणा, नीरया, णिम्मला, वितिमिरा, विसुद्धा सासयमणागयद्धं कालं) चिटुंति। __ • गोयमा ! से जहाणामए बीयाणं अग्गिदड्डाणं पुणरवि अंकुरुप्पत्ती ण भवइ, एवामेव सिद्धाणं कम्मबीए दड्डे पुणरवि जम्मुपत्ती न भवइ। से तेणटेणं गोयमा! एवं वुच्चइते णं तत्थ सिद्धा भवंति सादीया, अपज्जवसिया जाव' चिट्ठति। १५५- भगवान् ! वहाँ वे सिद्ध होते हैं, सादि-मोक्ष-प्राप्ति के काल की अपेक्षा से आदिसहित, अपर्यवसितअन्तरहित, (अशरीर-शरीर-रहित, जीवधन घनरूप अवगाहरूप आत्मप्रदेशयुक्त, दर्शनज्ञानोपयुक्त-दर्शन रूप अनाकार तथा ज्ञानरूप साकार उपयोग सहित, निष्ठितार्थ कृतकृत्य, सर्व प्रयोजन समाप्त किये हुए, निरेजननिश्चल, स्थिर या निष्प्रकम्प, नीरज कर्मरूप रज से रहित बध्यमान कर्म-वर्जित, निर्मल मलरहित—पूर्वबद्ध कर्मों से विनिर्मुक्त, वितिमिर—अज्ञानरूप अन्धकार से रहित, विशुद्ध परम शुद्ध कर्मक्षयनिष्पन्न आत्मशुद्धि युक्त) शाश्वतकालपर्यन्त स्थिर रहते हैं-इत्यादि आप किस आशय से फरमाते हैं ? गौतम! जैसे अग्नि से दग्ध सर्वथा जले हुए बीजों की पुनः अंकुरों के रूप में उत्पत्ति नहीं होती, उसी प्रकार कर्म-बीज दग्ध होने के कारण सिद्धों की भी फिर जन्मोत्पत्ति नहीं होती। गौतम! मैं इसी आशय से यह कह रहा हूँ कि सिद्ध सादि, अपर्यवसित...... होते हैं। सिद्धयमान के संहनन संस्थान आदि १५६- जीवा णं भंते ! सिज्झमाणा कयरंमि संघयणे सिझंति ? गोयमा ! वइरोसभणारायसंघयणे सिझंति। १५६- भगवन् ! सिद्ध होते हुए जीव किस संहनन (दैहिक अस्थि-बंध) में सिद्ध होते हैं ? गौतम! वे वज्र-ऋषभ-नाराच संहनन में सिद्ध होते हैं। १. देखें सूत्र यही।

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