Book Title: Agam 12 Upang 01 Auppatik Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Devendramuni, Ratanmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 222
________________ परिशिष्ट-१ : 'गण' और 'कुल' सम्बन्धी विशेष विचार १७९ अध्यापन, क्रियानुष्ठान की सुविधा रहे, इस हेतु गण पृथक्-पृथक् थे। वस्तुतः उनमें कोई मौलिक भेद नहीं था। वाचना का भी केवल शाब्दिक भेद था, अर्थ की दृष्टि से वे अभिन्न थीं। क्योंकि भगवान् महावीर ने अर्थरूप में जो तत्त्व-निरूपण किया, भिन्न-भिन्न गणधरों ने अपने-अपने शब्दों में उसका संकलन या संग्रथन किया, जिसे वे अपने-अपने गण के श्रमण-समुदाय को सिखाते थे। अतएव गणविशेष की व्यवस्था करनेवाले तथा उसे वाचना देनेवाले गणधर का निर्वाण हो जाने पर उस गण का पृथक् अस्तित्व नहीं रहता। निर्वाणोन्मुख गणधर अपने निर्वाण से पूर्व दीर्घजीवी गणधर सुधर्मा के गण में उसका विलय कर देते थे। भगवान् महावीर के संघ की यह परंपरा थी कि सभी गणों के श्रमण, जो भिन्न-भिन्न गणधरों के निर्देशन तथा अनुशासन में थे, प्रमुख पट्टधर के शिष्य माने जाते थे। इस परंपरा के अनुसार सभी श्रमण भगवान् महावीर के निर्वाण के अनन्तर सहजतया उनके उत्तराधिकारी सुधर्मा के शिष्य माने जाने लगे। यह परम्परा आगे भी चलती रही। ___ यह बड़ी स्वस्थ परम्परा थी। जब तक रही, संघ बहुत सबल एवं सुव्यवस्थित रहा। वस्तुतः धर्म-संघ का मुख्य आधार श्रमण-श्रमणी-समुदाय ही है। उनके सम्बन्ध में जितनी अधिक जागरूकता और सावधानी बरती जाती है, संघ उतना ही दृढ़ और स्थिर बनता है। ___ भगवान् महावीर के समय से चलती आई गुरु-शिष्य-परम्परा का आचार्य भद्रबाहु तक निर्वाह होता रहा। उनके बाद इस क्रम ने एक नया मोड़ लिया। तब तक श्रमणों की संख्या बहुत बढ़ चुकी थी। भगवान् महावीर के समय व्यवस्था की दृष्टि से गणों के रूप में संघ का जो विभाजन था, वह यथावत् रूप में नहीं चल पाया। सारे संघ का प्रमुख नेतृत्व एकमात्र पट्टधर पर होता था, वह भी आर्य जम्बू तक तो चल सका, आगे सम्भव नहीं रहा। फलतः उत्तरवर्ती काल में संघ में से समय-समय पर भिन्न-भिन्न नामों से पृथक्-पृथक् समुदाय निकले, जो 'गण' संज्ञा से अभिहित हुए। यहाँ यह ध्यान देने योग्य है कि भगवान् महावीर के समय में 'गण' शब्द जिस अर्थ में प्रयुक्त था, आगे चलकर उसका अर्थ परिवर्तित हो गया। भगवान् महावीर के आदेशानुवर्ती गण संघ के निरपेक्ष भाग नहीं थे, परस्पर सापेक्ष थे। आचार्य भद्रबाहु के अनन्तर जो गण अस्तित्व में आये, वे एक दूसरे से निरपेक्ष हो गये। परिणाम यह हुआ, दीक्षित श्रमणों के शिष्यत्व का ऐक्य नहीं रहा। जिस समुदाय में वे दीक्षित होते, उस समुदाय या गण के प्रधान के शिष्य कहे जाते। भगवान् महावीर के नौ गणों के स्थानांग सूत्र में जो नाम आये हैं, उनमें से एक के अतिरिक्त ठीक वे ही नाम आचार्य भद्रबाहु के पश्चात् भिन्न-भिन्न समय में विभिन्न आचार्यों के नाम से निकलने वाले आठ गणों के मिलते हैं, जो कल्प-स्थविरावली के निम्नांकित उद्धरण से स्पष्ट है "काश्यपगोत्रीय स्थविर गोदास से गोदास-गण निकला । स्थविर उत्तरबलिस्सह से उत्तरबलिस्सह-गण निकला । काश्यपगोत्रीय स्थविर आर्यरोहण से उद्देह-गण निकला। हारीतगोत्रीय स्थविर श्रीगुप्त से चारण-गण निकला।

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