Book Title: Agam 12 Upang 01 Auppatik Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Devendramuni, Ratanmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
View full book text
________________
१८२
औपपातिकसूत्र वैक्रियलब्धिधारी सात सौ तथा अनुत्तरोपपातिक मुनि आठ सौ बतलाये गये हैं।
केवलि, अवधिज्ञानी, पूर्वधर और वादी—दोनों परम्पराओं में इनकी एक समान संख्या मानी गई है। वैक्रियलब्धिधर की संख्या में दो सौ का अन्तर है। तिलोयपण्णत्ति में उनकी संख्या दो सौ अधिक मानी गई है।
उक्त विवेचन से बहुत साफ है कि तिलोयपण्णत्तिकार ने गण का प्रयोग सामान्यतः प्रचलित अर्थ समूह या समुदाय में किया है। कुल
श्रमणों की संख्या उत्तरोत्तर बढ़ती गई। गणों के रूप में जो इकाइयाँ निष्पन्न हुई थीं, उनका रूप भी विशाल होता गया। तब स्यात् गण-व्यवस्थापकों को बृहत् साधु-समुदाय की व्यवस्था करने में कुछ कठिनाइयों का अनुभव हुआ हो। क्योंकि अनुशासन में बने रहना बहुत बड़ी सहिष्णुता और धैर्य की अपेक्षा रखता है। हर कोई अपने उद्दीप्त अहं का हनन नहीं कर सकता। अनेक ऐसे कारण हो सकते हैं, जिनसे व्यवस्थाक्रम में कुछ और परिवर्तन आया। जो समुदाय गण के नाम से अभिहित होते थे, वे कुलात्मक इकाइयों में विभक्त हुए।
इसका मुख्य कारण एक और भी है। जहाँ प्रारंभ में जैनधर्म विहार और उसके आसपास के क्षेत्रों में प्रसृत था, उसके स्थान पर तब तक उसका प्रसार-क्षेत्र काफी बढ़ चुका था। श्रमण दूर-दूर के क्षेत्रों में विहार, प्रवास करने लगे थे। जैन श्रमण बाह्य साधनों का मर्यादित उपयोग करते थे, अब भी वैसा है। अतएव यह संभव नहीं था कि भिन्न-भिन्न क्षेत्रों से पर्यटन करने वाले मुनिगण का पारस्परिक संपर्क बना रहे । दूरवर्ती स्थान से आकर मिल लेना भी संभव नहीं था, क्योंकि जैन श्रमण पद-यात्रा करते थे। ऐसी स्थिति में जो-जो श्रमण-समुदाय विभिन्न स्थानों में विहार करते थे, वे दीक्षार्थी मुमुक्षु जनों को स्वयं अपने शिष्य के रूप में दीक्षित करने लगे। उनका दीक्षित श्रमणसमुदाय उनका कुल कहलाने लगा। यद्यपि ऐसी स्थिति आने से पहले भी स्थविर-श्रमण दीक्षार्थियों को दीक्षित करते थे परन्तु दीक्षित श्रमण मुख्य पट्टधर या आचार्य के ही शिष्य माने जाते थे। परिवर्तित दशा में ऐसा नहीं रहा। दीक्षा देने वाले दीक्षागुरु और दीक्षित उनके शिष्य ऐसा सीधा सम्बन्ध स्थापित हो गया। इससे संघीय ऐक्य की परंपरा विच्छिन्न हो गई और कुल के रूप में एक स्वायत्त इकाई प्रतिष्ठित हो गई।
भगवतीसूत्र की वृत्ति में आचार्य अभयदेवसूरि ने एक स्थान पर कुल का विश्लेषण करते हुए लिखा है
"एक आचार्य की सन्तति या शिष्य-परम्परा को कुल समझना चाहिए। तीन परस्पर सापेक्ष कुलों का एक गण होता है।
___ पञ्चवस्तुक टीका में तीन कुलों के स्थान पर परस्पर सापेक्ष अनेक कुलों के श्रमणों के समुदाय को गण कहा है।
१.
जैनधर्म का मौलिक इतिहास, प्रथम भाग पृष्ठ ४७३ एत्थ कुलं विण्णेयं, एगायरियस्स संतई जा उ । तिण्ह कुलाणमिहं पुण, सावेक्खाणं गणो होई ॥
-भगवतीसूत्र ८.८ वृत्ति। —पञ्चवस्तुक टीका, द्वार १
परस्परसापेक्षणामनेककुलानां साधूनां समुदाये।