Book Title: Agam 12 Upang 01 Auppatik Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Devendramuni, Ratanmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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सिद्धः सारसंक्षेप
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अपर्यवसित—अनन्त हैं, जो जन्म, बुढ़ापा, मृत्यु आदि अनेक योनियों की वेदना, संसार के भीषण दुःख, पुनः पुनः होनेवाले गर्भवास रूप प्रपंच बार-बार गर्भ में आने के संकट अतिक्रान्त कर चुके हैं, लाँघ चुके हैं, अपने शाश्वत—नित्य, भविष्य में सदा सुस्थिर स्वरूप में संस्थित रहते हैं।'
विवेचन- जैन साहित्य में वर्णित प्राचीन माप में अंगुल व्यावहारिक दृष्टि से सबसे छोटी इकाई है। वह तीन प्रकार का माना गया है—आत्मांगुल, उत्सेधांगुल तथा प्रमाणांगुल। वे इस प्रकार हैं
आत्मांगुल— विभिन्न कालों के मनुष्यों का अवगाहन (अवगाहना)—आकृति-परिमाण भिन्न-भिन्न होता है। अत: अंगुल का परिमाण भी परिवर्तित होता रहता है। अपने समय के मनुष्यों के अंगुल के माप के अनुसार जो परिमाण होता है, उसे आत्मांगुल कहा जाता है। जिस काल में जो मनुष्य होते हैं, उस काल के नगर, वन, उपवन, सरोवर, कूप, वापी, प्रासाद आदि उन्हीं के अंगुल के परिमाण से आत्मांगुल से नापे जाते हैं।
उत्सेधांगुल— आठ यवमध्य का एक उत्सेधांगुल माना गया है। नारक, मनुष्य, देव आदि की अवगाहना का माप उत्सेधांगुल द्वारा होता है।
प्रमाणांगुल— उत्सेधांगुल से हजार गुना बड़ा एक प्रमाणांगुल होता है। रत्नप्रभा आदि नारक भूमियाँ, भवनपति देवों के भवन, कल्प (देवलोक स्वर्ग), वर्षधर पर्वत, द्वीप आदि के विस्तार—लम्बाई, चौड़ाई, ऊँचाई, गहराई, परिधि आदि शाश्वत वस्तुओं का माप प्रमाणांगुल से होता है।
अनुयोगद्वार सूत्र में इसका विस्तार से वर्णन है। सिद्ध : सारसंक्षेप १६८- कहिं पडिहया सिद्धा, कहिं सिद्धा पडिट्ठिया ? ।
कहिं बोंदिं चइत्ता णं, कत्थ गंतूण सिज्झई ? ॥१॥ १६८– सिद्ध किस स्थान पर प्रतिहत हैं—प्रतिरुद्ध हैं—आगे जाने से रुक जाते हैं ? वे कहाँ प्रतिष्ठित हैंअवस्थित हैं ? वे यहाँ इस लोक में देह को त्याग कर कहाँ जाकर सिद्ध होते हैं ? १६९- अलोगे पडिहया सिद्धा, लोयग्गे य पडिट्ठिया ।
- इह बोंदिं चइत्ता णं, तत्थ गंतूण सिज्झई ॥२॥ १६९-सिद्ध लोक के अग्रभाग में प्रतिष्ठित हैं अतः अलोक में जाने में प्रतिहत हैं—अलोक में नहीं जाते। इस मर्त्यलोक में ही देह का त्याग कर वे सिद्ध-स्थान में जाकर सिद्ध होते हैं। १७०- जं संठाण तु इहं भवं चयंतस्स चरिमसमयंमि ।
आसी य पएसघणं, तं संठाणं तहिं तस्स ॥ ३॥ १७०-देह का त्याग करते समय अन्तिम समय में जो प्रदेशघन आकार–नाक, कान, उदर आदि रिक्त या
१. 'जोयणंमि लोगंते त्ति' इह योजनमृत्सेधाङ्गुलयोजनमवसेयम् । २. अनुयोगद्वार सूत्र, पृष्ठ १९२-१९६
- औपपातिकसूत्र, वृत्ति पत्र ११५