Book Title: Agam 12 Upang 01 Auppatik Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Devendramuni, Ratanmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 189
________________ औपपातिकसूत्र उदक- मृत्तिका — जल तथा मिट्टी के मेल से भाण्ड आदि के निर्माण का परिज्ञान, १६. अन्न - विधि अन्न पैदा करने की दक्षता अथवा भोजन- परिपाक का ज्ञान, १७. पान - विधि—पेय पदार्थों के निष्पादन, प्रयोग आदि का ज्ञान, १८. वस्त्र - विधि वस्त्र - सम्बन्धी ज्ञान, १९. विलेपन - विधि—— शरीर पर चन्दन, कुंकुम आदि सुगन्धित द्रव्यों के लेप का, मण्डन का ज्ञान, २० शयन - विधि शय्या आदि बनाने, सजाने की कला, २१. आर्या—आर्या आदि मात्रिक छन्द रचने की कला, २२ प्रहेलिका —— गूढ आशययुक्त गद्यपद्यात्मक रचना, २३. मागधिका — — मगध देश की भाषा — मागधी प्राकृत में काव्य-रचना, २४. गाथा— संस्कृतेतर शौरसेनी, अर्धमागधी, पैशाची आदि प्राकृतों—- लोक भाषाओं में आर्या आदि छन्दों की रचना करने की कला, २५. गीतिका — गेय काव्य की रचना, गीति, उपगीति आदि छन्दों में रचना, २६. श्लोक — अनुष्टुप् आदि छन्दों में रचना, २७. हिरण्य - युक्तिरजत - निष्पादन --- चाँदी बनाने की कला, २८. सुवर्ण-युक्ति सोना बनाने की कला, २९. गन्ध - युक्ति — सुगन्धित पदार्थ तैयार करने की विधि का ज्ञान, ३०. चूर्ण - युक्ति—विभिन्न औषधियों द्वारा तान्त्रिक विधि से निर्मित चूर्ण डालकर दूसरे को वश में करना, स्वयं अन्तर्धान हो जाना आदि ( विद्याओं) का ज्ञान, ३१. आभरण - विधि आभूषण बनाने तथा धारण करने की कला, ३२. तरुणी - प्रतिकर्म — युवती सज्जा की कला, ३३. स्त्री - लक्षण - पद्मिनी, हस्तिनी, शंखिनी व चित्रिणी स्त्रियों के लक्षणों का ज्ञान, ३४. पुरुष - लक्षण —— उत्तम, मध्यम, अधम आदि पुरुषों के लक्षणों का ज्ञान, अथवा शश आदि पुरुष-भेदों का ज्ञान, ३५. हय - लक्षण - अश्व-जातियों, लक्षणों आदि का ज्ञान, ३६. गज - लक्षण - हाथियों के शुभ, अशुभ आदि लक्षणों की जानकारी, ३७. गो-लक्षण- गाय, बैल के लक्षणों का ज्ञान, ३८. कुक्कुट - लक्षण— मुर्गों के लक्षणों का ज्ञान, ३९. चक्र - लक्षण, ४०. छत्र - लक्षण, ४१. चर्म - लक्षण - ढाल आदि चमड़े से बनी विशिष्ट वस्तुओं के लक्षणों का ज्ञान, ४२. दण्ड - लक्षण, ४३. असि - लक्षण - तलवार की श्रेष्ठता, अश्रेष्ठता का ज्ञान, ४४. मणिलक्षण——–रत्न- परीक्षा, ४५ . काकणी - लक्षण - चक्रवर्ती के एतत्संज्ञक रत्न के लक्षणों की पहचान, ४६. वास्तुविद्या भवन-निर्माण की कला, ४७. स्कन्धावार - मान—– शत्रुसेना को जीतने के लिए अपनी सेना का परिमाण जानना, छावनी लगाना, मोर्चा लगाना आदि की जानकारी, ४८. नगर-निर्माण, विस्तार आदि की कला अथवा युद्धोपयोगी विशेष नगर - रचना की जानकारी, जिससे शत्रु पर विजय प्राप्त की जा सके, ४९. वास्तुनिवेशन भवनों के उपयोग, विनियोग आदि के सम्बन्ध में विशेष जानकारी, ५० व्यूह आकार - विशेष में सेना स्थापित करने या जमाने की कला, प्रतिव्यूह —– शत्रु द्वारा रचे गये व्यूह के प्रतिपक्ष में — मुकाबले तत्प्रतिरोधक दूसरे व्यूह की रचना का ज्ञान, ५१. चार—चन्द्र, सूर्य, राहु, केतु आदि ग्रहों की गति का ज्ञान अथवा राशि गण, वर्ण, वर्ग आदि का ज्ञान, प्रतिचार — इष्टजनक, अनिष्टजनक शान्तिकर्म का ज्ञान, ५२. चक्रव्यूह — चक्ररथ के पहिये के आकार में सेना को स्थापित-सज्जित करना, ५३. गरुडव्यूह — गरुड के आकार में सेना को स्थापित - सज्जित करना, ५४. शकटव्यूह गाड़ी के आकार में सेना को स्थापित-सज्जित करना, ५५. युद्ध लड़ाई की कला, ५६ . नियुद्ध — पैदल युद्ध करने की कला, ५७. युद्धातियुद्ध – तलवार, भाला आदि फेंककर युद्ध करने की कला, ५८. मुष्टि-युद्ध मुक्कों से लड़ने में निपुणता, ५९. बाहु - युद्ध— भुजाओं द्वारा लड़ने की कला, ६०. लता - युद्ध— जैसे बेल वृक्ष पर चढ़ कर उसे जड़ से लेकर शिखर तक आवेष्टित कर लेती है, उसी प्रकार जहाँ योद्धा प्रतियोद्धा के शरीर को प्रगाढतया उपमर्दित कर भूमि पर गिरा देता है और उस पर चढ़ बैठता है, ६१. इषुशस्त्र नाग-बाण आदि के प्रयोग का ज्ञान, क्षुर - प्रवाह — छुरा आदि फेंककर वार करने का ज्ञान, ६२. धनुर्वेद — धनुर्विद्या, ६३. हिरण्यपाक — रजत - सिद्धि, ६४. सुवर्णपाक—– सुवर्ण- सिद्धि, ६५. वृत्त - खेल -— रस्सी आदि पर चलकर खेल दिखाने की कला, ६६. सूत्र - १४६

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