Book Title: Agam 12 Upang 01 Auppatik Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Devendramuni, Ratanmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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अनारंभी श्रमण
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चलाने वाले) सुशील, सुव्रत, स्वात्मपरितुष्ट, वे साधुओं के साक्ष्य से जीवन भर के लिए सम्पूर्णत: सब प्रकार की हिंसा, सम्पूर्णतः असत्य, सम्पूर्णत: चोरी, सम्पूर्णत: अब्रह्मचर्य तथा सम्पूर्णतः परिग्रह से प्रतिविरत होते हैं, सम्पूर्णत: क्रोध से, मान से, माया से, लोभ से, (प्रेय से, द्वेष से, कलह से, अभ्याख्यान से, पैशुन्य से, परपरिवाद से अरति-रति से, मायामृषा से,) मिथ्यादर्शनशल्य से प्रतिविरत होते हैं, सब प्रकार के आरंभ-समारंभ से प्रतिविरत होते हैं, करने, तथा कराने से संपूर्णतः प्रतिविरत होते हैं, पकाने एवं पकवाने से सर्वथा प्रतिविरत होते हैं, कूटने, पीने, तर्जित करने, ताडित करने, किसी के प्राण लेने, रस्सी आदि से बाँधने एवं किसी को कष्ट देने से सम्पूर्णतः प्रतिविरत होते हैं, स्नान, मर्दन, वर्णक, विलेपन, शब्द, स्पर्श, रस, रूप, गन्ध, माला और अलंकार से सम्पूर्ण रूप में प्रतिविरत होते हैं, इसी प्रकार और भी पाप - प्रवृत्तियुक्त, छल-प्रपंचयुक्त, दूसरों के प्राणों को कष्ट पहुँचाने वाले कर्मों से जीवन भर के लिए सम्पूर्णतः प्रतिविरत होते हैं।
अनारंभी श्रमण
१२६ - से जहाणामए अणगारा भवंति — इरियासमिया, भासासमिया, जाव (एसणासमिया आयाणभंडमत्तनिक्खेवणासमिया, उच्चारपासवण -खेलसिंघाणजल्लपरिद्वावणियासमिया, मणगुत्ता, वयगुत्ता, कायगुत्ता, गुत्ता, गुत्तिंदिया, गुत्तबंभयारी, अममा, अकिंचणा, छिण्णग्गंथा, छिण्णसोया, निरुवलेवा, कंसपाईव मुक्कतोया, संख इव निरंगणा, जीवो इव अप्पडिहयगई, जच्चकगणं पिव जायरूवा, आदरिसफलगा इव पागडभावा, कुम्मे इव गुत्तिंदिया, पुक्खरपत्तं इव निरुवलेवा, गगणमिव निरालंबणा, अणिलो इव निरालया, चंदो इव सोमलेसा, सूरो इव दित्ततेया, सागरो इव गंभीरा, विहग इव सव्वओ विप्पमुक्का, मंदरा इव अप्पकंपा, सारयसलिलं इव सुद्धहियया, खग्गिविसाणं इव एगजाया, भारंडपक्खी इव अप्पमत्ता कुंजरो इव सोंडीरा वसभो इव जायत्थामा, सीहो इव दुद्धरिसा, वसुंधरा इव सव्वफासविसहा, सुहुयहुयासणी इव तेयसा जलंता) इणमेव निग्गंथं पावयणं पुरओकाउं विहरंति ।
१२६ – वे अनगार—श्रमण ऐसे होते हैं, जो ईर्यागमन, हलन चलन आदि क्रिया, भाषा, आहार आदि की गवेषणा, याचना, पात्र आदि के उठाने, इधर-उधर रखने आदि में, मल, मूत्र, खंखार, नाक आदि का मैल त्यागने में समित—– सम्यक् प्रवृत्त—यतनाशील होते हैं, जो मनोगुप्त, वचोगुप्त, कायगुप्त मन, वचन तथा शरीर की क्रियाओं का गोपायन-संयम करने वाले, गुप्त शब्द आदि विषयों में रागरहित —– अन्तर्मुख, गुप्तेन्द्रिय — इन्द्रियों को उनके विषय-व्यापार में लगाने की उत्सुकता से रहित, गुप्त ब्रह्मचारी — नियमोपनियम पूर्वक ब्रह्मचर्य का संरक्षण—परिपालन करने वाले, अममममत्वरहित, अकिञ्चन – परिग्रहरहित, छिन्नग्रन्थ— संसार से जोड़नेवाले पदार्थों से विमुक्त, छिन्नस्रोत — लोक-प्रवाह में नहीं बहनेवाले या आस्रवों को रोक देने वाले, निरुपलेप कर्मबन्ध के लेप से रहित, कांसे के पात्र में जैसे पानी नहीं लगता, उसी प्रकार स्नेह, आसक्ति आदि के लगाव से रहित, शंख के समान निरंगण — राग आदि की रंजनात्मकता से शून्य— शंख जैसे सम्मुखीन रंग से अप्रभावित रहता है, उसी प्रकार सम्मुखीन क्रोध, द्वेष, राग, प्रेम, प्रशंसा, निन्दा आदि से अप्रभावित, जीव के समान अप्रतिहत-प्रतिघात या निरोध रहित गतियुक्त, जात्य— उत्तम जाति के, विशोधित, अन्य कुधातुओं से अमिश्रित शुद्ध स्वर्ण के समान जातरूप