Book Title: Agam 12 Upang 01 Auppatik Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Devendramuni, Ratanmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 180
________________ अम्बड़ परिव्राजक के सात सौ अन्तेवासी १३७ कर्म के उदय के परिणाम स्वरूप असंयम में सुख मानना, रुचि दिखाना, अरति—मोहनीय कर्म के उदय के परिणाम-स्वरूप संयम में अरुचि रखना, मायामृषा—माया या छलपूर्वक झूठ बोलना तथा मिथ्यादर्शन-शल्य-मिथ्या विश्वास रूप कांटे का जीवन भर के लिए त्याग करते हैं। अकरणीय योग न करने योग्य मन, वचन तथा शरीर की प्रवृत्ति—क्रिया का जीवन भर के लिए त्याग करते हैं। अशन–अन्नादि निष्पन्न भोज्य पदार्थ, पान—पानी, खादिम–खाद्य —फल, मेवा आदि पदार्थ, स्वादिमस्वाद्य—पान, सुपारी, इलायची आदि मुखवासकर पदार्थ —इन चारों का जीवन भर के लिए त्याग करते हैं। यह शरीर, जो इष्ट-वल्लभ, कान्त—काम्य, प्रिय—प्यारा, मनोज्ञ सुन्दर, मनाम मन में बसा रहने वाला, प्रेय—अतिशय प्रिय, प्रेज्य–विशेष मान्य, स्थैर्यमय—अस्थिर या विनश्वर होते हुए भी अज्ञानवश स्थिर प्रतीत होने वाला, वैश्वासिक-विश्वसनीय, सम्मत—अभिमत, बहुमत—बहुत माना हुआ, अनुमत, गहनों की पेटी के समान प्रीतिकर है, इसे सर्दी न लग जाए, गर्मी न लग जाए, यह भूखा न रह जाए, प्यासा न रह जाए, इसे सांप न डस ले, चोर उपद्रुत न करें—कष्ट न पहुँचाएं, डांस न काटें, मच्छर न काटें, वात, पित्त, (कफ) सन्निपात आदि से जनित विविध रोगों द्वारा, तत्काल मार डालने वाली बीमारियों द्वारा यह पीड़ित न हो, इसे परिषह—भूख, प्यास आदि कष्ट, उपसर्ग देवादि-कृत संकट न हों, जिसके लिए हर समय ऐसा ध्यान रखते हैं, उस शरीर का हम चरमं—अन्तिम उच्छ्वास-निःश्वास तक व्युत्सर्जन करते हैं उससे अपनी ममता हटाते हैं। संलेखना द्वारा जिनके शरीर तथा कषाय दोनों ही कृश हो रहे थे, उन परिव्राजकों ने आहार-पानी का परित्याग कर दिया। कटे हुए वृक्ष की तरह अपने शरीर को चेष्टा-शून्य बना लिया। मृत्यु की कामना न करते हुए शान्त भाव से वे अवस्थित रहे। ८८- तए णं ते परिव्वाया बहूई भत्ताइं अणसणाए छेदेति छेदित्ता आलोइयपडिक्कंता, समाहिपत्ता, कालमासे कालं किच्चा बंभलोए कप्पे देवत्ताए उववण्णा। तेहिं तेसिं गई, दससागरोवमाइं ठिई पण्णत्ता, परलोगस्स आराहगा, सेसं तं चेव। ८८- इस प्रकार उन परिव्राजकों ने बहुत से भक्त—चारों प्रकार के आहार अनशन द्वारा छिन्न किए अनशन द्वारा चारों प्रकार के आहारों से सम्बन्ध तोड़ा अथवा बहुत से भोजन-काल अनशन द्वारा व्यतीत किये। वैसा कर दोषों की आलोचना की उनका निरीक्षण-परीक्षण किया, उनसे प्रतिक्रान्त—परावृत्त हुए, हटे, समाधि-दशा प्राप्त की। मृत्यु-समय आने पर देह त्यागकर ब्रह्मलोक कल्प में वे देव रूप में उत्पन्न हुए। उनके स्थान के अनुरूप उनकी गति बतलाई गई है। उनका आयुष्य दश सागरोपम कहा गया है। वे परलोक के आराधक हैं। अवशेष वर्णन पहले की तरह है। विवेचन– सूत्र संख्या ७४ से ८८ के अन्तर्गत जिन तापस साधक, परिव्राजक आदि का वर्णन है, उनके आचार-व्यवहार, जीवन-क्रम तथा साधना-पद्धति का सूक्ष्मता से परिशीलन करने पर ऐसा प्रतीत होता है कि भगवान् महावीर के समय में, उसके आसपास साधकों के कतिपय ऐसे समुदाय भी थे, जिन्हें न तो सर्वथा वैदिक मतानुयायी कहा जा सकता है और न पूर्णतः निर्ग्रन्थ-परम्परा से सम्बद्ध ही। उनके जीवन के कुछ आचार ऐसे थेजिनका सम्बन्ध वैदिक साधना-पद्धति की किन्हीं परम्पराओं से जोड़ा जा सकता था। उनकी साधना का शौच या

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