Book Title: Agam 12 Upang 01 Auppatik Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Devendramuni, Ratanmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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यवमध्यचन्द्र-प्रतिमा, वज्रमध्यचन्द्र-प्रतिमा, स्थविरों के गुण यवमध्यचन्द्र-प्रतिमा
शुक्लपक्ष की प्रतिपदा से शुरू होकर चन्द्रमा की कला की वृद्धि-हानि के आधार पर दत्तियों की वृद्धि-हानि करते हुए उसकी आराधना की जाती है। दोनों पक्षों के पन्द्रह-पन्द्रह दिन मिलाकर इसकी आराधना की जाती है। दोनों पक्षों के पन्द्रह-पन्द्रह दिन मिलाकर इसकी आराधना में एक महीना लगता है। शुक्लपक्ष में बढ़ती हुई दत्तियों की संख्या तथा कृष्णपक्ष में घटती हुई दत्तियों की संख्या, मध्य में दोनों ओर से भारी व मोटी होती है। इसलिए इसके मध्य भाग को जौ से उपमित किया गया। जौ का दाना बीच में मोटा होता है।
इसका विश्लेषण यों है
शुक्लपक्ष की प्रतिपदा को एक दत्ति अन्न, एक दत्ति पानी, द्वितीया को दो दत्ति अन्न तथा दो दत्ति पानी, इस प्रकार उत्तरोत्तर बढ़ाते हुए पूर्णिमा को पन्द्रह दत्ति अन्न, पन्द्रह दत्ति पानी, कृष्णपक्ष की प्रतिपदा को चवदह दत्ति अन्न तथा चवदह दत्ति पानी, फिर क्रमशः एक-एक घटाते हुए कृष्णपक्ष की चतुर्दशी को एक दत्ति अन्न, एक दत्ति पानी तथा अमावस्या को उपवास—यह साधनाक्रम है। वज्रमध्यचन्द्र-प्रतिमा
. कृष्णपक्ष की प्रतिपदा के दिन इसे प्रारम्भ किया जाता है। चन्द्रमा की कला की हानि-वृद्धि के आधार पर दत्तियों की हानि-वृद्धि से यह प्रतिमा सम्पन्न होती है। प्रारम्भ में कृष्णपक्ष की प्रतिपदा को १५ दत्ति अन्न और १५ दत्ति पानी ग्रहण करने का विधान है, जो आगे उत्तरोत्तर घटता जाता है, अमावस्या को एक दत्ति रह जाता है। शुक्लपक्ष की प्रतिपदा को दो दत्ति अन्न, दो दत्ति पानी लिया जाता है। उत्तरोत्तर बढ़ते हुए शुक्लपक्ष की चतुर्दशी को पन्द्रह-पन्द्रह दत्ति हो जाता है और पूर्णमासी को पूर्ण उपवास रहता है। यों इसका बीच का भाग दत्तियों की संख्या की अपेक्षा से पतला या हलका रहता है। वज्र का मध्य भाग भी पतला होता है इसलिए इसे वज्र के मध्यभाग से उपमित किया गया है। स्थविरों के गुण
२५- तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतेवासी बहवे थेरा भगवंतो जाइसंपण्णा कुलसंपण्णा बलसंपण्णा रूवसंपण्णा विणयसंपण्णा णाणसंपण्णा दंसणसंपण्णा चरित्तसंपण्णा लज्जासंपण्णा लाघवसंपण्णा ओयंसी तेयंसी वच्चंसी जसंसी, जियकोहा जियमाणा जियमाया जियलोभा जिइंदिया जियणिद्दा जियपरीसहा जीवियास-मरणभयविप्पमुक्का, वयप्पहाणा गुणप्पहाणा करणप्पहाणा चरणप्पहाणा णिग्गहप्पहाणा निच्छयप्पहाणा अज्जवप्पहाणा मद्दवप्पहाणा लाघवप्पहाणा खंतिप्पहाणा मुत्तिप्पहाणा विजाप्पहाणा मंतष्पहाणा वेयप्पहाणा बंभप्पहाणा नयप्पहाणा नियमप्पहाणा सच्चप्पहाणा सोयप्पहाणा चारुवण्णा लजातवस्सीजिइंदिया सोही अणियाणा अप्पोसुया अवहिल्लेसा अप्पडिलेस्सा सुसामण्णरया दंता इणमेव णिग्गंथं पावयणं पुरओकाउं विहरंति। ____२५- तब श्रमण भगवान् महावीर के अन्तेवासी बहुत से स्थविर–ज्ञान तथा चारित्र में वृद्ध–वृद्धि-प्राप्त, भगवान्, जाति-सम्पन्न –उत्तम, मातृपक्षयुक्त, कुलसम्पन्न-उत्तम निर्मल पितृपक्षयुक्त, बल-सम्पन्न-उत्तम दैहिक