Book Title: Agam 12 Upang 01 Auppatik Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Devendramuni, Ratanmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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भगवान् द्वारा धर्म-देशना
लौटाने वाले – जन्म-मरण के चक्र में नहीं गिराने वाले गमन का मार्ग है, अवितथ——सद्भूतार्थ वास्तविक, अविसन्धि —— पूर्वापरविरोध से रहित तथा सब दुःखों को प्रहीण— सर्वथा क्षीण करने का मार्ग है। इसमें स्थित जीव सिद्धि-सिद्धावस्था प्राप्त करते हैं अथवा अणिमा आदि महती सिद्धियों को प्राप्त करते हैं, बुद्धज्ञानी—–— केवल - ज्ञानी होते हैं, मुक्त - भवोपग्राही — जन्ममरण में लाने वाले कर्मांश से रहित हो जाते हैं, परिनिर्वृत्त होते हैं— कर्मकृत संताप से रहित — परमशान्तिमय हो जाते हैं तथा सभी दुःखों का अन्त कर देते हैं। एकाच — जिनके एक ही मनुष्य-भव धारण करना ब्लाकी रहा है, ऐसे भदन्त —–— कल्याणान्वित अथवा निर्ग्रन्थ प्रवचन के भक्त पूर्व कर्मों के बाकी रहने से किन्हीं देवलोकों में देव के रूप में उत्पन्न होते हैं। वे देवलोक महर्द्धिक — विपुल ऋद्धियों से परिपूर्ण, (अत्यन्त ति, बल तथा यशोमय) अत्यन्त सुखमय दूरंगतिक — दूर गति से युक्त एवं चिरस्थितिक – लम्बी स्थिति वाले होते हैं ।
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वहाँ देवरूप में उत्पन्न वे जीव अत्यन्त ऋद्धिसम्पन्न ( अत्यन्त द्युतिसम्पन्न, अत्यन्त बलसम्पन्न, अत्यन्त यशस्वी, अत्यन्त सुखी) तथा चिरस्थितिक – दीर्घ आयुष्ययुक्त होते । उनके वक्षःस्थल हारों से सुशोभित होते हैं । (वे कटक, त्रुटित, अंगद, कुण्डल, कर्णाभरण आदि अलंकार धारण किये रहते वे अपने दिव्य संघात, दिव्य संस्थान, दिव्य ऋद्धि, दिव्य द्युति, दिव्य प्रभा, दिव्य कान्ति, दिव्य आभा, दिव्य तेज तथा दिव्य लेश्या द्वारा दशों दिशाओं को उद्योतित करते हैं, प्रभासित करते हैं ।) वे कल्पोपग देवलोक में देव-शय्या से युवा रूप में उत्पन्न होते हैं। वे वर्तमान में उत्तम देवगति के धारक तथा भविष्य में भद्र कल्याण या निर्वाण रूप अवस्था को प्राप्त करने वाले होते हैं। (वे आनन्द, प्रीति, परम सौमनस्य तथा हर्षयुक्त होते हैं) असाधारण रूपवान् होते हैं।
भगवान् ने आगे कहा——जीव चार स्थानों—–— कारणों से नैरयिक—– नरक - योनि का आयुष्यबन्ध करते हैं, फलतः वे विभिन्न नरकों में उत्पन्न होते हैं ।
वे स्थान या कारण इस प्रकार हैं—१. महाआरम्भ— घोर हिंसा के भाव व कर्म, २. महापरिग्रह —— अत्यधिक संग्रह के भाव व वैसा आचरण, ३. पंचेन्द्रिय- वध—– मनुष्य, तिर्यंच — पशु-पक्षी आदि पाँच इन्द्रियों वाले प्राणियों का हनन तथा ४. मांस भक्षण ।
इन कारणों से जीव तिर्यंच - योनि में उत्पन्न होते हैं - १. मायापूर्ण निकृति — छलपूर्ण जालसाजी, २ . अलीक वचन—असत्य भाषण, ३. उत्कंचनता — झूठी प्रशंसा या खुशामद अथवा किसी मूर्ख व्यक्ति को ठगने वाले धूर्त का समीपवर्ती विचक्षण पुरुष के संकोच से कुछ देर के लिए निश्चेष्ट रहना या अपनी धूर्तता को छिपाए रखना, ४ . वंचनता— प्रतारणा या ठगी ।
इन कारणों से जीव मनुष्य - योनि में उत्पन्न होते हैं—
१. प्रकृति - भद्रता — स्वाभाविक भद्रता — भलापन, जिससे किसी को भीति या हानि की आशंका न हो, २. प्रकृति-विनीतता——–स्वाभाविक विनम्रता, ३. सानुक्रोशता — सदयता, करुणाशीलता तथा ४. अमत्सरता — ईर्ष्या का
अभाव ।
इन कारणों से जीव देवयोनि में उत्पन्न होते हैं
१. सरागसंयम—राग या आसक्तियुक्त चारित्र, २. संयमासंयम —— देशविरति —— श्रावकधर्म, ३. अकाम - निर्जरामोक्ष की अभिलाषा के बिना या विवशतावश कष्ट सहना, ४. बाल-तप— मिथ्यात्वी या अज्ञानयुक्त अवस्था में