Book Title: Agam 12 Upang 01 Auppatik Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Devendramuni, Ratanmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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परिव्राजकों का उपपात
करकण्ट, ३. अम्बड, ४. पाराशर, ५. कृष्ण, ६. द्वैपायन, ७. देवगुप्त तथा ८. नारद ।
उनमें आठ क्षत्रिय - परिव्राजक - क्षत्रिय जाति में से दीक्षित परिव्राजक होते हैं—- १. शीलधी, २. शशिधर (शशिधारक), ३. नग्नक, ४. भग्नक, ५. विदेह, ६. राजराज, ७. राजराम तथा ८. बल ।
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विवेचन प्रस्तुत सूत्र में जिन विभिन्न परिव्राजकों का उल्लेख हुआ है, उससे प्रतीत होता है, उस समय साधना के क्षेत्र में अनेक प्रकार के धार्मिक आम्नाय प्रचलित थे, जिनका आगे चलकर प्रायः लोप सा हो गया । अतएव यहाँ वर्णित परिव्राजकों के सम्बन्ध में भारतीय वाङ्मय में कोई विस्तृत या व्यवस्थित वर्णन प्राप्त नहीं होता । भारतीय धर्म-सम्प्रदायों के विकास, विस्तार तथा विलयक्रम पर शोध करने वाले अनुसन्धित्सु विद्वानों के लिए यह एक महत्त्वपूर्ण विषय है, जिस पर गहन अध्ययन तथा गवेषणा की आवश्यकता है।
वृत्तिकार आचार्य अभयदेवसूरि ने चार यति परिव्राजकों का वृत्ति में जो परिचय दिया है, उसके अनुसार हंस परिव्राजक उन्हें कहा जाता था, जो पर्वतों की कन्दराओं में, पर्वतीय मार्गों पर, आश्रमों में, देवकुलों—देवस्थानों में या उद्यानों में वास करते थे, केवल भिक्षा हेतु गाँव में आते थे। परमहंस उन्हें कहा जाता है, जो नदियों के तटों पर, नदियों के संगम - स्थानों पर निवास करते थे, जो देह त्याग के समय परिधेय वस्त्र, कौपीन ( लंगोट ), तथा कुश डाभ के बिछौने का परित्याग कर देते थे, वैसा कर प्राण त्यागते थे। जो गाँव में एक रात तथा नगर में पाँच रात प्रवास करते थे, प्राप्त भोगों को स्वीकार करते थे, उन्हें बहूदक कहा जाता था। जो गृह में वास करते हुए क्रोध, लोभ, मोह और अहंकार का त्याग किये रहते थे, वे कुटीव्रत या कुटीचर कहे जाते थे ।
इस सूत्र में आठ प्रकार के ब्राह्मण-परिव्राजक तथा आठ प्रकार के क्षत्रिय - परिव्राजकों की दो गाथाओं में चर्चा की गई है । वृत्तिकार ने उनके सम्बन्ध में केवल इतना सा संकेत किया— "कण्ड्वादयः षोडश परिव्राजका लोकतो ऽवसेयाः"।२
अर्थात् इन सोलह परिव्राजकों के सम्बन्ध में लोक से जानकारी प्राप्त करनी चाहिए। ऐसा प्रतीत होता है, वृत्तिकार के समय तक ये परम्पराएँ लगभग लुप्त हो गई थीं। इनका कोई साहित्य उपलब्ध नहीं था ।
क्षत्रिय परिव्राजकों में एक शशिधर या शशिधारक नाम आया है। नाम से प्रतीत होता है, ये कोई ऐसे परिव्राजक रहे हों, जो मस्तक पर चन्द्रमा का आकार या प्रतीक धारण करते हों। आज भी शैवों में 'जंगम' संज्ञक परम्परा के लोग प्राप्त होते हैं, जो अपने आराध्य देव शिव के अनुरूप अपने मस्तक पर सर्प के प्रतीक के साथ-साथ चन्द्र का प्रतीक भी धारण किये रहते हैं । कुछ इसी प्रकार की स्थिति शशिधरों के साथ रही हो। निश्चित रूप से कुछ कहा नहीं जा सकता ।
७७ – ते णं परिव्वाया रिउव्वेद यजुव्वेद सामवेद - अहव्वणवेद- इतिहासपंचमाणं, निघण्टुछट्ठाणं, संगोवंगाणं सरहस्साणं चउण्हं वेदाणं सारगा पारगा धारगा, सडंगवी, सट्ठितंतविसारया, संखाणे, सिक्काकप्पे, वागरणे, छंदे, निरुत्ते, जोइसामयणे, अण्णेसु य बहूसु बंभण्णएसु य सत्थेसु परिव्वासु य नएसु सुपरिणिट्ठिया यावि होत्था ।
१- २. औपपातिकसूत्र वृत्ति पत्र ९२