Book Title: Agam 12 Upang 01 Auppatik Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Devendramuni, Ratanmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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औपपातिकसूत्र कालं किच्चा उक्कोसेणं सोहम्मे कप्पे कंदप्पिएसु देवेसु देवत्ताए उववत्तारो भवंति। तहिं तेसिं गई, सेसं तं चेव णवरं पलिओवमं वाससयसहस्समब्भहियं ठिई।
७५-(ये) जो ग्राम, सन्निवेश आदि में मनुष्य रूप में उत्पन्न होते हैं, प्रव्रजित होकर अनेक रूप में श्रमण होते हैं___जैसे कान्दर्पिक नानाविध हास-परिहास या हँसी-मजाक करने वाले, कौकुचिक–भौं, आँख, मुंह, हाथ, पैर आदि से भांडों की तरह कुत्सित चेष्टाएं कर हंसाने वाले, मौखरिक असम्बद्ध या ऊटपटांग बोलने वाले, गीतरतिप्रिय गानयुक्त क्रीडा में विशेष अभिरुचिशील अथवा गीतप्रिय लोगों को चाहने वाले तथा नर्तनशील नाचने की प्रकृति वाले, जो अपने-अपने जीवन-क्रम के अनुसार आचरण करते हुए बहुत वर्षों तक श्रमण-जीवन का पालन करते हैं, पालन कर अन्त-समय में अपने पाप-स्थानों का आलोचन-प्रतिक्रमण नहीं करते-गुरु के समक्ष आलोचना कर दोष-निवृत्त नहीं होते, वे मृत्युकाल आने पर देह-त्याग कर उत्कृष्ट सौधर्म-कल्प में प्रथम देवलोक में हास्य-क्रीडा-प्रधान देवों में उत्पन्न होते हैं। वहाँ उनकी गति आदि अपने पद के अनुरूप होती है। उनकी स्थिति एक लाख वर्ष अधिक एक पल्योपम की होती है। परिव्राजकों का उपपात
७६- से जे इमे जाव' सन्निवेसेसु परिव्वाया भवंति, तं जहा—संखा, जोगी, काविला, भिउव्वा, हंला, परमहंसा, बहुउदगा, कुलिव्वया, कण्हपरिव्वाया। तत्थ खलु इमे अट्ठ माहणपरिव्वायगा भवंति। तं जहा
कण्हे य करकंडे य अंबडे य परासरे ।
कण्हे दीवायणे चेव देवगुत्ते य नारए ॥ तत्थ खलु इमे अट्ठ खत्तियपरिव्वाया भवंति, तं जहा
सीलई ससिहारे (य), नग्गई भग्गई ति य ।
विदेहे रायाराया, राया रामे बलेति य ॥ ७६- जो ग्राम..."सन्निवेश आदि में अनेक प्रकार के परिव्राजक होते हैं, जैसे—सांख्य–पुरुष, प्रकृति, बुद्धि, अहंकार, पञ्चतन्मात्राएं, एकादश इन्द्रिय, पंचमहाभूत—इन पच्चीस तत्त्वों में श्रद्धाशील, योगी हठ योग के अनुष्ठाता, कापिल–महर्षि कपिल को अपनी परम्परा का आद्य प्रवर्तक मानने वाले, निरीश्वरवादी सांख्य मतानुयायी, भार्गव—भृगु ऋषि की परम्परा के अनुसा, हंस, परमहंस, बहूदक तथा कुटीचर संज्ञक चार प्रकार के यति एवं कृष्ण परिव्राजक नारायण में भक्तिशील विशिष्ट परिव्राजक आदि।
उनमें आठ ब्राह्मण-परिव्राजक ब्राह्मण जाति में दीक्षित परिव्राजक होते हैं, जो इस प्रकार हैं-१. कर्ण, २.
१. २.
देखें सूत्र संख्या ७१ पञ्चविंशतितत्त्वज्ञो, यत्र तत्राश्रमे वसन् । जटी मुण्डी शिखी वापि, मुच्यते नात्र संशयः ॥
-सांख्यकारिका १.गौडपादभाष्य