Book Title: Agam 12 Upang 01 Auppatik Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Devendramuni, Ratanmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
View full book text
________________
एकान्तबाल : एकान्त सुप्त का उपपात
मिथ्यादृष्टि अज्ञानी है, जो एकान्त - सुप्त है – मिथ्यात्व की निद्रा में बिल्कुल सोया हुआ है, क्या वह मोहनीय पापकर्म से लिप्त होता है— मोहनीय पाप कर्म का बंध करता है ?
हाँ, गौतम! करता है।
११५
६६ — जीवे णं भंते ! मोहणिज्जं कम्मं वेदेमाणे किं मोहणिज्जं कम्मं बंधइ ? वेयणिज्जं कम्मं बंध ?
गोयमा ! मोहणिज्जं पि कम्मं बंधइ, वेयणिजं पि कम्मं बंधइ, णण्णत्थ चरिममोहणिज्जं कम्मं वेदेमाणे वेअणिज्जं कम्मं बंधइ, णो मोहणिज्जं कम्मं बंधइ ।
६६— भगवन्! क्या जीव मोहनीय कर्म का वेदन— अनुभव करता हुआ मोहनीय कर्म का बंध करता है ? क्या वेदनीय कर्म का बंध करता है ?
गौतम ! वह मोहनीय कर्म का बंध करता है, वेदनीय कर्म का भी बंध करता है। किन्तु (सूक्ष्मसंपराय नामक दशम गुणस्थान में) चरम मोहनीय कर्म का वेदन करता हुआ जीव वेदनीय कर्म का ही बंध करता है, मोहनीय का नहीं ।
एकान्तबाल : एकान्त सुप्त का उपपात
६७ – जीवे णं भंते ! असंजए, अविरए, अपडिहयपच्चक्खायपावकम्मे, सकिरिए, असंवुडे, एगंतदंडे, एगंतबाले, एगंतसुत्ते, ओसण्णतसपाणघाई कालमासे कालं किच्चा णेरइएसु उववज्जति ?
हंता उववज्जति ।
६७— भगवन्! जो जीव असंयत—संयम रहित है, अविरत है, जिसने सम्यक्त्वपूर्वक पापकर्मों को प्रतिहत नहीं किया है— हलका नहीं किया है, नहीं मिटाया है, जो सक्रिय है— ( मिथ्यात्वयुक्त) कायिक, वाचिक एवं मानसिक क्रियाओं में संलग्न है, असंवृत्त है— संवररहित है— अशुभ का निरोध नहीं किये हुए है, एकान्त दण्ड है— परिपूर्ण प्रवृत्तियों द्वारा अपने को तथा औरों को सर्वथा दण्डित करता है, एकान्तबाल है— सर्वथा मिध्यादृष्टि है तथा एकान्तसुप्त-मिथ्यात्व की प्रगाढ निद्रा में सोया हुआ है, त्रस - द्वीन्द्रिय आदि स्पन्दनशील, हिलने डुलनेवाले अथवा जिन्हें त्रास का वेदन करते हुए अनुभव किया जा सके, वैसे जीवों का प्रायः - बहुलतया घात करता है— त्रस प्राणियों की हिंसा में लगा रहता है, क्या वह मृत्यु-काल आने पर मरकर नैरयिकों में उत्पन्न होता है ?
हाँ, गौतम ऐसा होता है ।
६८ — जीवे णं भंते ! असंजए अविरए अप्पडिहयपच्चक्खायपावकम्मे इओ चुए पेच्च देवे सिया ?
गोयमा ! अत्थेगइया देवे सिया, अत्थेगइया णो देवे सिया ।
६८- भगवन् जिन्होंने संयम नहीं साधा, जो अविरत हैं— हिंसा, असत्य आदि से विरत नहीं हैं, जिन्होंने प्रत्याख्यान द्वारा पाप-कर्मों को प्रतिहत नहीं किया— सम्यक् श्रद्धापूर्वक पापों का त्याग कर उन्हें नहीं मिटाया, वे यहाँ से च्युत होकर मृत्यु प्राप्त कर आगे के जन्म में क्या देव होते हैं ? क्या देवयोनि में जन्म लेते हैं ?