Book Title: Agam 12 Upang 01 Auppatik Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Devendramuni, Ratanmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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आचार्य
१५. केवल-ज्ञान की आशातना नहीं करना।
इन पन्द्रह की भक्ति, उपासना, बहुमान, गुणों के प्रति तीव्र भावानुरागरूप पन्द्रह भेद तथा इन (पन्द्रह) की यशस्विता, प्रशस्ति एवं गुणकीर्तन रूप और पन्द्रह भेद–यों अनत्याशातना-विनय के कुल पैंतालीस भेद होते हैं।
विवेचन- यहाँ प्रयुक्त आचार्य, उपाध्याय, स्थविर, गण तथा कुल का कुछ विश्लेषण अपेक्षित है, जो इस प्रकार हैआचार्य
वैयक्तिक, सामष्टिक श्रमण-जीवन का सम्यक् निर्वाह, धर्म की प्रभावना, ज्ञान की आराधना, साधना का विकास तथा संगठन व अनुशासन की दृढ़ता आदि के निमित्त जैन श्रमण-संघ में निम्नांकित पदों के होने का उल्लेख प्राप्त होता है
१. आचार्य, २. उपाध्याय, ३. प्रवर्तक, ४. स्थविर, ५.गणी, ६. गणधर, ७. गणावच्छेदक।
इनमें आचार्य का स्थान सर्वोपरि है। संघ का सर्वतोमुखी विकास, संरक्षण, संवर्धन, अनुशासन आदि का सामूहिक उत्तरदायित्व आचार्य पर होता है। ___ . जैन वाङ्मय के अनुशीलन से प्रतीत होता है कि जैन संघ में आचार्य पद का आधार मनोनयन रहा, निर्वाचन नहीं। भगवान् महावीर का अपनी प्राक्तन परंपरा के अनुरूप इसी ओर झुकाव था। आगे भी यही परंपरा गतिशील रही। आचार्य ही भावी आचार्य का मनोनयन करते थे तथा अन्य पदाधिकारियों का भी। अब तक ऐसा ही चला आ रहा है।
संघ की सब प्रकार की देखभाल का मुख्य दायित्व आचार्य पर रहता है। संघ में उनका आदेश अन्तिम और सर्वमान्य होता है।
आचार्य की विशेषताओं के संदर्भ में कहा गया है
"आचार्य सूत्रार्थ के वेत्ता होते हैं। वे उच्च लक्षण युक्त होते हैं। वे गण के लिए मेढिभूत स्तम्भरूपी होते हैं। वे गण के तप से मुक्त होते हैं उनके निर्देशन में चलता गण सन्तापरहित होता है। वे अन्तेवासियों को आगमों की अर्थ-वाचना देते हैं—उनहें आगमों का रहस्य समझाते हैं।
आचार्य ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, तपाचार तथा वीर्याचार का स्वयं परिपालन करते हैं, उनका प्रकाश-प्रसार करते हैं, उपदेश करते हैं, दूसरे शब्दों में वे स्वयं आचार का पालन करते हैं तथा अन्तेवासियों से करवाते हैं, अतएव आचार्य कहे जाते हैं।"
और भी कहा गया है"जो शास्त्रों के अर्थ का आचयन-संचयन–संग्रहण करते हैं, स्वयं आचार का पालन करते हैं, दूसरों को
सुत्तत्थविऊ लक्खणजुत्तो, गच्छस्स मेढिभूओ य । गणतत्तिविप्पमुक्को, अत्थं वाएइ आयरिओ ॥ पंचविहं आयारं, आयरमाणा तहा पयासंता। आचारै देसंता, आयरिया तेण वुच्चंति ॥
-भगवतीसूत्र १.१.१, मंगलाचरण वृत्ति