Book Title: Agam 12 Upang 01 Auppatik Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Devendramuni, Ratanmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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जन-समुदाय द्वारा भगवान् का वन्दन
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तीर्थस्वरूप हैं। उनकी पर्युपासना करें। यह (वन्दन, नमन) आदि इस भव में वर्तमान जीवन में, परभव में जन्मजन्मान्तर में हमारे लिए हितप्रद, सुखप्रद, क्षान्तिप्रद तथा निश्रेयस्प्रद–मोक्षप्रद सिद्ध होगा।
__यों चिन्तन करते हुए बहुत से उग्रों आरक्षक अधिकारियों, उग्रपुत्रों, भोगों-राजा के मन्त्रिमण्डल के सदस्यों, भोगपुत्रों, राजन्यों राजा के परामर्शकमण्डल के सदस्यों, (इक्ष्वाकुवंशीयों, ज्ञातवंशीयों, कुरुवंशीयों) क्षत्रियों-क्षत्रिय वंश के राजकर्मचारियों, ब्राह्मणों, सुभटों, योद्धाओं, युद्धोपजीवी, सैनिकों, प्रशास्ताओंप्रशासनाधिकारियों, मल्लकियों-मल्ल गणराज्य के सदस्यों, लिच्छिवियों-लिच्छिवि गणराज्य के सदस्यों तथा अन्य अनेक राजाओं—माण्डलिक, नरपतियों, ईश्वरों—ऐश्वर्यशाली एवं प्रभावशील पुरुषों, तलवरों राजसम्मानित विशिष्ट नागरिकों, मांडविकों—जागीरदारों या भूस्वामियों, कौटुम्बिकों बड़े परिवारों के प्रमुखों, इभ्यों वैभवशाली जनों, श्रेष्ठियों—सम्पत्ति और सुव्यवहार से प्रतिष्ठाप्राप्त सेठों, सेनापतियों एवं सार्थवाहों अनेक छोटे व्यापारियों को साथ लिए देशान्तर में व्यवसाय करने वाले समर्थ व्यापारियों, इन सबके पुत्रों में से अनेक वन्दन हेतु, अनेक पूजन हेतु, अनेक सत्कार हेतु, अनेक सम्मान हेतु, अनेक दर्शन हेतु, अनेक उत्सुकता-पूर्ति हेतु, अनेक अर्थविनिश्चय हेतु तत्त्वनिर्णय हेतु, अश्रुत नहीं सुने हुए को सुनेंगे, श्रुत-सुने हुए को संशयरहित करेंगे तद्गत संशय दूर करेंगे, अनेक इस भाव से, अनेक यह सोचकर कि युक्ति, तर्क तथा विश्लेषणपूर्वक तत्त्व-जिज्ञासा करेंगे, अनेक यह चिन्तन कर कि सभी सांसारिक सम्बन्धों का परिवर्जन कर, मुण्डित होकर-प्रवजित होकर अगार-धर्मगृहस्थ धर्म से आगे बढ़ कर अनगार-धर्म श्रमण-जीवन स्वीकार करेंगे, अनेक यह सोचकर कि पाँच अणुव्रत, सात शिक्षाव्रत—यों बारह व्रत युक्त श्रावक-धर्म स्वीकार करेंगे, अनेक भक्ति-अनुराग के कारण, अनेक यह सोच कर कि यह अपना वंश-परम्परागत व्यवहार है, भगवान् की सन्निधि में आने को उद्यत हुए।
उन्होंने स्नान किया, नित्य-नैमित्तिक कार्य किये, कौतुक देहसज्जा की दृष्टि से नेत्रों में अंजन आंजा, ललाट पर तिलक किया, प्रायश्चित्त दुःस्वप्नादि दोष-निवारण हेतु चन्दन, कुंकुम, दधि, अक्षत आदि से मंगलविधान किया, मस्तक पर, गले में मालाएँ धारण की, रत्नजड़े स्वर्णाभरण, हार, अर्धहार, तीन लड़ों के हार, लम्बे हार, लटकती हुई करधनियाँ आदि शोभावर्धक अलंकारों से अपने को सजाया, श्रेष्ठ, उत्तम मांगलिक वस्त्र पहने। उन्होंने समुच्चय रूप में शरीर पर, शरीर के अलग-अलग अंगों पर चन्दन का लेप किया।
उनमें से कई घोड़ों पर, कई हाथियों पर, कई शिविकाओं पर्देदार पालखियों पर, कई पुरुष-प्रमाण पालखियों पर सवार हुए। अनेक व्यक्ति बहुत पुरुषों द्वारा चारों ओर से घिरे हुए पैदल चल पड़े। वे (सभी लोग) उत्कृष्ट, हर्षोन्नत, सुन्दर, मधुर घोष द्वारा नगरी को लहराते, गरजते विशाल समुद्रसदृश बनाते हुए उसके बीच से गुजरे। वैसा कर, जहाँ पूर्णभद्र चैत्य था, वहाँ आये। आकर न अधिक दूर से, न अधिक निकट से भगवान् के तीर्थंकर-रूप के वैशिष्ट्यद्योतक छत्र आदि अतिशय–विशेष चिह्न-उपकरण देखे। देखते ही अपने यान, वाहन वहाँ ठहराये। ठहराकर यानगाड़ी, रथ आदि, वाहन–घोड़े, हाथी आदि से नीचे उतरे। नीचे उतर कर, जहाँ श्रमण भगवान् महावीर थे, वहाँ आये। वहाँ आकर श्रमण भगवान् महावीर को तीन बार आदक्षिण-प्रदक्षिणा की, वन्दन, नमस्कार किया। वन्दन, नमस्कार कर, भगवान् के न अधिक दूर, न अधिक निकट स्थित हो, शुश्रूषाउनके वचन सुनने की उत्कण्ठा लिए, नमस्कार-मुद्रा में भगवान् महावीर के सामने विनयपूर्वक अंजलि बाँधेहाथ जोड़े उनकी पर्युपासना करने लगे उनका सान्निध्यलाभ लेने लगे।