Book Title: Agam 12 Upang 01 Auppatik Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Devendramuni, Ratanmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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औपपातिकसूत्र
माणे णमंसमाणे अभिमुहे विणएणं पंजलिउडे पज्जुवासइ । वाइयाए– 'जं जं भगवं वागरेइ एवमेयं भंते! तहमेयं भंते! अवितहमेयं भंते! असंदिद्धमेयं भंते! इच्छियमेयं भंते! पडिच्छियमेयं भंते ! इच्छियपडिच्छियमेयं भंते! से जहेयं तुब्भे वदह', अपडिकूलमाणे पज्जुवासइ | माणसियाएमहयासंवेगं जणइत्ता तिव्वधम्माणुरागरत्ते पज्जुवासइ ।
५४— भंभसार के पुत्र राजा कूणिक का सहस्रों नर-नारी अपने नेत्रों से बार-बार दर्शन कर रहे थे । सहस्रों नर-नारी हृदय से उसका बार-बार अभिनन्दन कर रहे थे । सहस्रों नर-नारी अपने शुभ मनोरथ — हम इनकी सन्निधि में रह पाएँ, इत्यादि उत्सुकतापूर्ण मन:कामनाएं लिये हुए थे । सहस्रों नर-नारी उसका बार-बार अभिस्तवनगुणसंकीर्तन कर रहे थे। सहस्रों नर-नारी उसकी कान्ति — देहदीप्ति, उत्तम सौभाग्य आदि गुणों के कारण ये स्वामी हमें सदा प्राप्त रहें, बार-बार ऐसी अभिलाषा करते थे ।
नर-नारियों द्वारा अपने हजारों हाथों से उपस्थापित अंजलिमाला — प्रणामांजलियों को अपना दाहिना हाथ ऊंचा उठाकर बार-बार स्वीकार करता हुआ, अत्यन्त कोमल वाणी से उनका कुशल पूछता हुआ, घरों की हजारों पंक्तियों को लांघता हुआ राजा कूणिक चम्पा नगरी के बीच से निकला। निकल कर, जहाँ पूर्णभद्र चैत्य था, वहाँ आया। आकर भगवान् के न अधिक दूर न अधिक निकट — समुचित स्थान पर रुका। तीर्थंकरों के छत्र आदि अतिशयों को देखा। देख कर अपनी सवारी के प्रमुख उत्तम हाथी को ठहराया, हाथी से नीचे उतरा, उतर कर तलवार, छत्र, मुकट, चंवर — इन राजचिह्नों को अलग किया, जूते उतारे । भगवान् महावीर जहाँ थे, वहाँ आया । आकर, सचित्त — सजीव पदार्थों का व्युत्सर्जन — अलग करना, अचित्त—- अजीव पदार्थों का अव्युत्सर्जन — अलग न करना, अखण्ड अनसिले वस्त्र का उत्तरासंग — उत्तरीय की तरह कन्धे पर डालकर धारण करना, धर्म-नायक पर दृष्टि पड़ते ही हाथ जोड़ना, मन को एकाग्र करना—इन पाँच नियमों के अनुपालनपूर्वक राजा कूणिक भगवान् के सम्मुख गया। भगवान् को तीन बार आदक्षिण - प्रदक्षिणा कर वन्दना की, नमस्कार किया । वन्दना, नमस्कार कर कायिक, वाचिक, मानसिक रूप से पर्युपासना की । कायिक पर्युपासना के रूप में हाथों-पैरों को संकुचित किये हुए — सिकोड़े हुए, शुश्रूषा — सुनने की इच्छा करते हुए, नमन करते हुए भगवान् की ओर मुँह किये, विनय से हाथ जोड़े हुए स्थित रहा । वाचिक पर्युपासना के रूप में— जो-जो भगवान् बोलते थे, उसके लिए "यह ऐसा ही है भन्ते ! यही तथ्य है भगवन् ! यही सत्य है प्रभो! यही सन्देह-रहित है स्वामी ! यही इच्छित है भन्ते ! यही प्रतीच्छित— स्वीकृत है प्रभो! यही इच्छित - प्रतीच्छित है भन्ते ! जैसा आप कह रहे हैं।" इस प्रकार अनुकूल वचन बोलता रहा। मानसिक पर्युपासना के रूप में अपने में अत्यन्त संवेग — मुमुक्षु भाव उत्पन्न करता हुआ तीव्र धर्मानुराग से अनुरक्त
रहा ।
रानियों का सपरिजन आगमन, वन्दन
५५ — तए णं ताओ सुभद्दप्पमुहाओ देवीओ अंतोअंतेउरंसि ण्हायाओ जाव ( कयबलिकम्माओ कयकोउय-मंगल- पायच्छित्ताओ), सव्वालंकारविभूसियाओ बहूहिं खुज्जाहिं चिलाईहिं वामणीहिं वडभीहिं, बब्बरीहिं बउसियाहिं जोणियाहिं पह्नवियाहिं ईसिणियाहिं चारुणियाहिं लासियाहिं लउसियाहिं सिंहलीहिं दमिलीहिं आरबीहिं पुलिंदीहिं पक्कणीहिं बहलीहिं मुरुंडीहिं सबरीहिं पारसीहिं