Book Title: Agam 12 Upang 01 Auppatik Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Devendramuni, Ratanmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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औपपातिकसूत्र
व्यन्तर देवों का आगमन
३५- तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स बहवे वाणमंतरा देवा अंतियं पाउब्भवित्था–पिसायभूया य जक्खरक्खसा, किंनरकिंपुरिसभुयगपइणो य महाकाया, गंधव्वणिकायगणा णिउणगंधव्वगीयरइणो, अणवण्णिय-पणवण्णिय-इसिवादिय-भूयवादिय-कंदिय-महाकंदिया य कुहंड-पयए च देवा, चंचलचवलचित्त-कीलण-दवप्पिया, गंभीरहसिय-भणिय-पीय-गीय-णच्चणरई, वणमाला मेल-मउड-कुंडल-सच्छंदविउव्वियाहरणचारुविभूसणधरा सव्वोउय-सुरभि-कुसुस-सूरइयपलंब-सोभंत-कंत-वियसंत-चित्त-वणमालरइयवच्छा, कामगमा, कामरूवधारी, णाणाविह-वण्णरागवरवत्थ-चित्त-चिल्लयणियंसणा, विविहदेसीणेवच्छगहियवेसा, पमुइयकंदप्पकलहकेलीकोलाहलपिया, हासबोलबहुला, अणेगमणि-रयण-विविहणिजुत्तविचित्तचिंधगया, सुरूवा, महिड्डिया जावं पज्जुवासंति।
३५– उस काल, उस समय श्रमण भगवान् महावीर के समीप पिशाच, भूत, यक्ष, राक्षस, किन्नर, किंपुरुष, महाकाय भुजगपति, गन्धर्व–नाटयोपेत गान, गीत-नाट्यवर्जित गेय विशुद्ध संगीत में अनुरक्त गन्धर्व गण, अणपन्निक पणपन्निक, ऋषिवादिक, भूतवादिक, क्रन्दित, महाक्रन्दित, कूष्मांड, प्रयत या पतग–ये व्यन्तर जाति के देव प्रकट हुए।
वे देव चपल चित्तयुक्त, क्रीड़ाप्रिय तथा परिहासप्रिय थे। उन्हें गम्भीर हास्य—अट्टहास तथा वैसी ही वाणी प्रिय थी। वे वैक्रियलब्धि द्वारा अपनी इच्छानुसार विरचित वनमाला, फूलों का सेहरा या कलंगी, मुकुट, कुण्डल आदि आभूषणों द्वारा सुन्दर-रूप में सजे हुए थे। सब ऋतुओं में खिलने वाले, सुगन्धित पुष्पों से सुरचित, लम्बी घुटनों तक लटकती हुई, शोभित होती हुई, सुन्दर, विकसित वनमालाओं द्वारा उनके वक्षःस्थल बड़े आह्लादकारीमनोज्ञ या सुन्दर प्रतीत होते थे। वे कामगम इच्छानुसार जहाँ कहीं जाने का सामर्थ्य रखते थे, कामरूपधारीइच्छानुसार (यथेच्छ) रूप धारण करने वाले थे। वे भिन्न-भिन्न रंग के उत्तम, चित्र-विचित्र तरह-तरह के चमकीले-भड़कीले वस्त्र पहने हुए थे। अनेक देशों की वेशभूषा के अनुरूप उन्होंने भिन्न-भिन्न प्रकार के पोशाकें धारण कर रखी थीं। वे प्रमोदपूर्ण काम-कलह, क्रीड़ा तथा तज्जनित कोलाहल में प्रीति मानते थे—आनन्द लेते थे। वे बहुत हँसने वाले तथा बहुत बोलने वाले थे। वे अनेक मणियों एवं रत्नों से विविध रूप में निर्मित चित्र-विचित्र चिह्न धारण किये हुए थे। वे सुरूप—सुन्दर रूप युक्त तथा परम ऋद्धि सम्पन्न थे। पूर्व समागत देवों की तरह यथाविधि वन्दन-नमन कर श्रमण भगवान् महावीर की पर्युपासना करने लगे। ज्योतिष्क देवों का आगमन __ ३६- तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स जोइसिया देवा अंतियं पाउब्भवित्था-विहस्सति-चंद-सूर-सुक्क-सणिच्छरा, राहू, धूमकेतू बुहा य अंगारका य तत्ततवणिजकणगवण्णा, जे य गहा जोइसंमि चारं चरंति, केऊ य गइरइया अट्ठावीसतिविहा य णक्खत्तदेवगणा, णाणासंठाणसंठियाओ य पंचवण्णाओ ताराओ ठियलेसा, चारिणो य अविस्साममंडलगई, पत्तेयं
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देखें सूत्र-संख्या ३४