Book Title: Agam 12 Upang 01 Auppatik Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Devendramuni, Ratanmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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यह कर्मव्युत्सर्ग है ।
इस प्रकार व्युत्सर्ग का विवेचन है।
विवेचन — यहाँ प्रस्तुत बाह्य तथा आभ्यन्तर तप का विश्लेषण अध्यात्म साधना की दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। तप ही जीवन के अन्तिम साध्य मोक्ष तक पहुँचाने का प्रमुख मार्ग है। भारत की सभी धर्म-परंपराओं में तप पर विशेष जोर दिया जाता रहा है।
औपपातिकसूत्र
भारत की अध्यात्म-साधना के विकास एवं विस्तार की ऐतिहासिक गवेषणा करने पर तप मूलक अनेक महत्त्वपूर्ण तथ्य प्रकाश में आते हैं। उदाहरणार्थ कभी ऐसे साधकों का एक विशेष आम्नाय इस देश में था, जो तप को ही सर्वाधिक महत्त्व देते थे। उनमें अवधूत साधकों की एक विशेष परंपरा थी ।
वैदिक तथा पौराणिक साहित्य में अवधूत शब्द विशेष रूप से प्रयुक्त है । अवधूत का शाब्दिक विश्लेषण करें तो इसका तात्पर्य सर्वथा कंपा देने वाला या हिला देने वाला है । अवधूत शब्द के साथ प्राचीन वाङ्मय में जो भाव जुड़ा है उसकी साध्यता यों बन सकती है— अवधूत वह है, जिसने भोगवासना को प्रकंपित कर दिया हो, अपने तपोमय भोग-विरत जीवन द्वारा एषणाओं और लिप्साओं को झकझोर दिया हो। भागवत में ऋषभ को एक महान् तपस्वी साधक के रूप में व्याख्यात किया गया है। वहां लिखा है—
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'भगवान् ऋषभ के सौ पुत्र थे । भरत सबमें ज्येष्ठ थे । वे परम भागवत तथा भक्तों के अनुरागी थे। ऋषभ ने पृथ्वी का पालन करने के लिए उन्हें राज्यारूढ किया। स्वयं सब कुछ वहीं छोड़कर वे केवल देह मात्र का परिग्रह लिये घर से निकल पड़े। आकाश ही उनका परिधान था । उनके बाल बिखरे हुए थे । आहवनीय — हवन योग्य अग्नि को मानो उन्होंने अपने में लीन कर लिया हो, यों वे ब्रह्मावर्त से बाहर निकल गये ।
कभी शहरों में, कभी गाँवों में, कभी खदानों में, कभी कृषकों की बस्तियों में, उद्यानों में, पहाड़ी गाँवों में, सेना के शिविरों में, ग्वालों की झोंपड़ियों में, पहाड़ों में, वनों में, आश्रमों में ऐसे ही अन्यान्य स्थानों में टिकते, विचरते। वे कभी किसी रास्ते से निकलते तो जैसे वन में घूमने वाले हाथी को मक्खियाँ तंग करती हैं, उसी प्रकार अज्ञानी, दुष्ट जन उनके पीछे हो जाते और उन्हें सताते, उन्हें धमकाते, ताड़ना देते, उन पर मूत्र कर देते, थूक देते, पत्थर मार देते, विष्ठा और धूल फेंक देते, उन पर अधोवायु छोड़ते, अपभाषण द्वारा उनकी अवगणना — तिरस्कार करते, पर वे उन सब बातों पर जरा भी गौर नहीं करते। क्योंकि भ्रान्तिवश जिस शरीर को सत्य कहा जाता है, उस मिथ्या देह में उनका अहंभाव या ममत्व जरा भी नहीं रह गया था। वे कार्य-कारणात्मक समस्त जगत्प्रपञ्च को साक्षी या तटस्थ के रूप में देखते, अपने परमात्म-स्वरूप में लीन रहते और अपनी चित्तवृत्ति को अखण्डित— सुस्थिर बनाये पृथ्वी पर एकाकी विचरण करते।""
१.
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भागवत
जड भरत' तथा दत्तात्रेय का भी अवधूत के रूप में वर्णन आया है, जहाँ उनके उग्र तपोमय जीवन की विस्तृत चर्चा है। योगिराज भर्तृहरि भी अवधूत के रूप में विख्यात रहे हैं ।
भागवत पञ्चम स्कन्ध, ५.२८-३१
भागवत पञ्चम स्कन्ध, ७-१०
भागवत एकादश स्कन्ध, अध्याय ७