Book Title: Agam 12 Upang 01 Auppatik Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Devendramuni, Ratanmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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औपपातिकसूत्र
वाग्योग-प्रतिसंलीनता क्या है ?
अकुशल–अशुभ वचन का निरोध दुर्वचन नहीं बोलना अथवा कुशल वचन—सद्वचन बोलने का अभ्यास करना वाग्योग-प्रतिसंलीनता है।
काययोग-प्रतिसंलीनता क्या है ? हाथ, पैर आदि सुसमाहित—सुस्थिर कर, कछुए के सदृश अपनी इन्द्रियों को गुप्त कर, सारे शरीर को संवृत्त कर-प्रवृत्तियों से खींचकर हटाकर सुस्थिर होना काययोग-प्रतिसंलीनता है।
यह योग-प्रतिसंलीनता का विवेचन है।
विविक्त-शय्यासन-सेवनता क्या है ? आराम पुष्पप्रधान बगीचा, पुष्पवाटिका, उद्यान—पुष्प-फल-समवेत बड़े-बड़े वृक्षों से युक्त बगीचा, देवकुल देवमन्दिर, छतरियाँ, सभा लोगों के बैठने या विचार-विमर्श हेतु एकत्र होने का स्थान, प्रपा–जल पिलाने का स्थान, प्याऊ, पणित-गृह बर्तन-भांड आदि क्रयविनयोचित वस्तुएँ रखने के घर–गोदाम, पणितशाला क्रय-विक्रय करने वाले लोगों के ठहरने योग्य गृहविशेष, ऐसे स्थानों में, जो स्त्री, पशु तथा नपुंसक के संसर्ग से रहित हो, प्रासुक–निर्जीव, अचिंत्त, एषणीय संयमी पुरुषों द्वारा ग्रहण करने योग्य, निर्दोष पीठ, फलक काष्ठपट्ट, शय्या—पैर फैलाकर सोया जा सके, ऐसा बिछौना, तृण, घास आदि का आस्तरणकुछ छोटा बिछौना प्राप्त कर विहरण करना–साधनामय जीवन-यापन करना विविक्त-शय्यासन-सेवनता है।
यह प्रतिसंलीनता का विवेचन है, जिसके साथ बाह्य तप का वर्णन सम्पन्न होता है। श्रमण भगवान् महावीर के अन्तेवासी अनगार उपर्युक्त विविध प्रकार के बाह्य तप के अनुष्ठाता थे। आभ्यन्तर तप क्या है—कितने प्रकार का है ? आभ्यन्तर तप छह प्रकार का कहा गया है
१. प्रायश्चित्त व्रत-पालन में हुए अतिचार या दोष की विशुद्धि, २. विनय-विनम्र व्यवहार (जो कर्मों के विनयन —अपनयन का हेतु है), ३. वैयावृत्त्य संयमी पुरुषों की आहार आदि द्वारा सेवा, ४. स्वाध्याय—आत्मोपयोगी ज्ञान प्राप्त करने हेतु मर्यादापूर्वक सत्-शास्त्रों का पठन-पाठन, ५. ध्यान—एकाग्रतापूर्ण सत्-चिन्तन, चित्तवृत्तियों का निरोध तथा ६. व्युत्सर्ग हेय या त्यागने योग्य पदार्थों का त्याग। प्रायश्चित्त
प्रायश्चित्त क्या है—कितने प्रकार का है ? प्रायश्चित्त दश प्रकार का कहा गया है, जो इस प्रकार है
१.आलोचनाह -आलोचन–प्रकटीकरण से होने वाला प्रायश्चित्त। गमन, आगमन, भिक्षा, प्रतिलेखन आदि दैनिक कार्यों में लगने वाले दोषों को गुरु या ज्येष्ठ साधु के समक्ष प्रकट करने, उनकी आलोचना करने से दोष-शुद्धि हो जाती है।
२. प्रतिक्रमणाई–पाप या अशुभ योग से पीछे हटने से सधने वाला प्रायश्चित्त। साधु द्वारा पालनीय पांच समिति तथा तीन गुप्ति के सन्दर्भ में सहसाकारित्व आदि के कारण लगने वाले दोषों को लेकर "मिच्छा मि दुक्कडं मिथ्या मे दुष्कृतम्" मेरा दुष्कृत या पाप मिथ्या हो—निष्फल हो, यों चिन्तन पूर्वक प्रायश्चित्त करने से दोष-शुद्धि हो जाती है।