Book Title: Agam 12 Upang 01 Auppatik Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Devendramuni, Ratanmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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औपपातिकसूत्र शक्तियुक्त, रूप-सम्पन्न रूपवान्—सर्वांगसुन्दर, विनय-सम्पन्न, ज्ञान-सम्पन्न, दर्शन-सम्पन्न, चारित्र-सम्पन्न, लजासम्पन्न, लाघव-सम्पन्न हलके-भौतिक पदार्थों तथा कषाय आदि के भार से रहित, ओजस्वी, तेजस्वी, वचस्वीप्रशस्तभाषी अथवा वर्चस्वी वर्चस् या प्रभायुक्त, यशस्वी, क्रोधजयी, मानजयी, मायाजयी, लोभजयी, इन्द्रियजयी, निद्राजयी, परिषहजयी कष्टविजेता, जीवन की इच्छा और मृत्यु के भय से रहित, व्रतप्रधान, गुणप्रधान—संयम आदि गुणों की विशेषता से युक्त, करणप्रधान—आहारविशुद्धि आदि की विशेषता सहित, चारित्रप्रधान—उत्तमचारित्र सम्पन्न —दशविध यतिधर्म से युक्त, निग्रहप्रधान—राग आदि शत्रुओं के निरोधक, निश्चयप्रधान सत्य तत्त्व के निश्चित विश्वासी या कर्म-फल की निश्चितता में आश्वस्त, आर्जवप्रधान—सरलतायुक्त, मार्दवप्रधान—मृदुतायुक्त, लाघवप्रधान—आत्मलीनता के कारण किसी भी प्रकार के भार से रहित या स्फूर्तिशील, क्रियादक्ष, क्षान्तिप्रधानक्षमाशील, गुप्तिप्रधान मानसिक, वाचिक तथा कायिक प्रवृत्तियों के गोपक–विवेकपूर्वक उनका उपयोग करने वाले, मुक्तिप्रधान—कामनाओं से छूटे हुए या मुक्तता की ओर अग्रसर, विद्याप्रधान—ज्ञान की विविध शाखाओं के पारगामी, मन्त्रप्रधान—सत् मन्त्र, चिन्तना या विचारणायुक्त, वेदप्रधान—वेद आदि लौकिक, लोकोत्तर शास्त्रों के ज्ञाता, ब्रह्मचर्यप्रधान, नयप्रधान नैगम आदि नयों के ज्ञाता, नियमप्रधान—नियमों के पालक, सत्यप्रधान, शौचप्रधानआत्मिक शुचिता या पवित्रतायुक्त, चारुवर्ण—सुन्दर वर्णयुक्त अथवा उत्तम कीर्तियुक्त, लज्जा संयम की विराधना में हृदयसंकोच वाले तथा तपश्री तप की आभा या तप के तेज द्वारा जितेन्द्रिय, शोधि-शुद्ध या अकलुषितहृदय, अनिदान—निदानरहित स्वर्ग तथा अन्यान्य वैभव, समृद्धि, सुख आदि की कामना बिना धर्माराधना में संलग्न, अल्पौत्सुक्य-भौगिक उत्सुकता रहित थे। अपनी मनोवृत्तियों को संयम से बाहर नहीं जाने देते थे। अनुपम (उच्च) मनोवृत्तियुक्त थे, श्रमण-जीवन के सम्यक् निर्वाह में संलग्न थे, दान्त–इन्द्रिय, मन आदि का दमन करने वाले थे, वीतराग प्रभु द्वारा प्रतिपादित प्रवचन-धर्मानुशासन, तत्त्वानुशासन को आगे रखकर—प्रमाणभूत मानकर विचरण करते थे।
२६-तेसि णं भगवंताणं आयावाया वि विदिता भवंति, परवाया वि विदिता भवंति, आयावायं जमइत्ता नलवणमिव मत्तमातंगा, अच्छिद्दपसिणवागरणा, रयणकरंडगसमाणा, कुत्तियावणभूया, परवाइपमद्दणा, दुवालसंगिणो, समत्तगणिपिडगधरा, सव्वक्खरसण्णिवाइणो, सव्वभासाणुगामिणो, अजिणा जिणसंकासा, जिणा इव अवितहं वागरमाणा संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणा विहरंति।
२६- वे स्थविर भगवान् आत्मवाद—अपने सिद्धान्तों के विविध वादों पक्षों के वेत्ता—जानकार थे। वे दूसरे के सिद्धान्तों के भी वेत्ता थे।
कमलवन में क्रीडा आदि हेतु पुनः पुनः विचरण करते हाथी की ज्यों वे अपने सिद्धान्तों के पुनः पुनः अभ्यास या आवृत्ति के कारण उनसे सुपरिचित थे। वे अछिद्र—अव्याहत अखण्डित–निरन्तर प्रश्नोत्तर करते रहने में सक्षम थे। वे रत्नों की पिटारी के सदृश ज्ञान, दर्शन, चारित्र आदि दिव्य रत्नों से आपूर्ण थे।
कुत्रिक स्वर्गलोक, मर्त्यलोक, पाताललोक में प्राप्त होनेवाली वस्तुओं की हाट के सदृश वे अपने लब्धिवैशिष्टय के कारण सभी अभीप्सित—इच्छित अर्थ या प्रयोजन संपादित करने में समर्थ थे। परवादिप्रमर्दन दूसरों के वादों या सिद्धान्तों का युक्तिपूर्वक प्रमर्दन—सर्वथा खण्डन करने में सक्षम थे। आचारांग, सूत्रकृतांग आदि बारह अंगों के ज्ञाता थे। समस्त गणि-पिटक–आचार्य का पिटक–पेटी—प्रकीर्णक, श्रुतादेश, श्रुतनियुक्ति आदि समस्त