Book Title: Agam 12 Upang 01 Auppatik Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Devendramuni, Ratanmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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भगवान् के अन्तेवासी
तुष्टिदान या पारितोषिक के रूप से दीं । उत्तम वस्त्र आदि द्वारा उसका सत्कार किया, आदरपूर्ण वचनों से सम्मान किया। यों सत्कार तथा सम्मान कर उसने कहा—
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२१ – जया णं देवाणुप्पिया ! समणे भगवं महावीरे इहमागच्छेज्जा, इह समोसरिज्जा, इहेव चंपाए णयरीए बहिया पुणभद्दे चेइए अहापडिरूवं ओग्गहं ओगिण्हित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरेज्जा, तया णं मम एयमहं निवेदिज्जासित्ति कट्टु विसजिए ।
२१ – देवानुप्रिय ! जब श्रमण भगवान् महावीर यहाँ पधारें, समवसृत हों, यहाँ चम्पानगरी के बाहर पूर्णभद्र चैत्य में यथाप्रतिरूप —— समुचित साधुचर्या के अनुरूप आवास-स्थान ग्रहण कर संयम एवं तप से आत्मा को भावित करते हुए विराजित हों, मुझे यह समाचार निवेदित करना। यों कहकर राजा ने वार्तानिवेदक को वहाँ से विदा किया ।
भगवान् का चम्पा में आगमन
२२— तए णं समणे भगवं महावीरे कल्लं पाउप्पभायाए रयणीए, फुल्लुप्पलकमलकोमलुम्मिलियंमि अहपंडुरे पहाए, रत्तासोगप्पगास- किंसुय-सुयमुह-गुंजद्धरागसरिसे, कमलागरसंडबोहए उट्ठियम्मि, सूरे सहस्सरस्सिमिं दिणयरे तेयसा जलंते, जेणेव चंपा णयरी, जेणेव पुण्णभद्दे चेइए, तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता अहापडिरूवं ओग्गहं ओगिण्हित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहर ।
२२— तत्पश्चात् अगले दिन रात बीत जाने पर, प्रभात हो जाने पर, नीले तथा अन्य कमलों के सुहावने रूप में खिल जाने पर, उज्ज्वल प्रभायुक्त एवं लाल अशोक, किंशुक — पलाश, तोते की चोंच, घुंघची के आधे भाग के सदृश लालिमा लिये हुए, कमलवन को उद्बोधित — विकसित करने वाले, सहस्रकिरणयुक्त, दिन के प्रादुर्भावक सूर्य के उदित होने पर, अपने तेज से उद्दीप्त होने पर श्रमण भगवान् महावीर, जहाँ चम्पा नगरी थी, जहाँ पूर्णभद्र चैत्य था, वहाँ पधारे। पधार कर यथाप्रतिरूप —— समुचित — साधुचर्या के अनुरूप आवास-स्थान ग्रहण कर संयम एवं तप . से आत्मा को भावित करते हुए विराजे ।
भगवान् के अन्तेवासी
२३ – तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतेवासी बहवे समणा भगवंतो अप्पेगइया उग्गपव्वइया, भोगपव्वइया, राइण्ण - णायकोरव्वखत्तियपव्वइया, भडा, जोहा, सेणावई पसत्थारो, सेट्ठी, इब्भा, अण्णे य बहवे एवमाइणो उत्तमजाइकुलरूवविणयविण्णाणवण्णलावण्णविक्कमपहाणसो-भग्गकंतिजुत्ता, बहुधणधण्णणिचयपरियालफिडिया, णरवइगुणाइरेगा, इच्छियभोगा, सुहसंपललिया किंपागफलोवमं च मुणिय विसयसोक्खं जलबुब्बुयसमाणं, कुसग्गजलबिन्दुचंचलं जीवियं य णाऊण अद्भुवमिणं रयमिव पडग्गलग्गं संविधुणित्ताणं चइत्ता हिरण्णं जाव ( चिच्चा सुवण्णं, चिच्चा धणं एवं धण्णं बलं वाहणं कोसं कोट्ठागारं रज्जं रट्टं पुरं अन्तेउरं चिच्चा, विउलधणकणग-रयण-मणि-मोत्तिय संख-सिल-प्पवाल - रत्तरयणमाइयं संतसारसावतेज्जं विच्छडुइत्ता, विगोवइत्ता, दाणं च दाइयाणं परिभायइत्ता, मुंडा भवित्ता अगाराओ अणगारियं ) पव्वइया, अप्पेगइया