Book Title: Agam 12 Upang 01 Auppatik Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Devendramuni, Ratanmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 62
________________ प्रवृत्ति-व्यापृत द्वारा सूचना १९ थे, उनके वक्ष और उदर पर सीधे, समान, संहित — एक दूसरे से मिले हुए, उत्कृष्ट कोटि के, सूक्ष्म हल्के, काले, चिकने उपादेय — उत्तम, लावण्यमय, रमणीय बालों की पंक्ति थी, उनके कुक्षिप्रदेश—— उदर के नीचे के दोनों पार्श्व मत्स्य और पक्षी के समान सुजात — सुनिष्पन्न सुन्दर रूप में अवस्थित तथा पीन—परिपुष्ट थे, उनका उदर मत्स्य जैसा था, उनके उदर का कारण — आन्त्र समूह शुचि - स्वच्छ — निर्मल था, उनकी नाभि कमल की तरह विकट— गूढ़, गंगा के भंवर की तरह गोल, दाहिनी और चक्कर काटती हुई तरंगों की तरह घुमावदार, सुन्दर, चमकते हुए सूर्य की किरणों से विकसित होते कमल के समान खिली हुई थी तथा उनकी देह का मध्यभाग, त्रिकाष्ठिका, मूसल व दर्पण के हत्थे के मध्य-भाग के समान तलवार की मूठ समान तथा उत्तम वज्र के समान गोल और पतला था, प्रमुदित—— रोग-शोकादि, रहित — स्वस्थ, उत्तम घोड़े तथा उत्तम सिंह की कमर के समान उनकी कमर गोल घेराव लिए थी, उत्तम घोड़े के सुनिष्पन्न गुप्तांग की तरह उनका गुह्य भाग था, उत्तम जाति के अश्व की तरह उनका शरीर 'मल-मूत्र' विसर्जन की अपेक्षा से निर्लेप था, श्रेष्ठ हाथी के तुल्य पराक्रम और गम्भीरता लिए उनकी चाल थी, हाथी की सूंड की तरह उनकी जंघाएं सुगठित थीं, उनके घुटने डिब्बे के ढक्कन की तरह निगूढ़ थे—मांसलता के कारण अनुन्नत — बाहर नहीं निकले हुए थे, उनकी पिण्डलियाँ हरिणी की पिण्डलियों, कुरुविन्द घास तथा क हुए सूत की गेंढी की तरह क्रमशः उतार सहित गोल थीं, उनके टखने सुन्दर, सुगठित और निगूढ़ थे, उनके चरण — पैर सुप्रतिष्ठित — सुन्दर रचनायुक्त तथा कछुए की तरह उठे हुए होने से मनोज्ञ प्रतीत होते थे, उनके पैरों की अंगुलियाँ क्रमशः आनुपातिक रूप में छोटी-बड़ी एवं सुसंहत — सुन्दर रूप में एक दूसरे से सटी हुई थीं, पैरों के नख उन्नत, पतले, तांबे की तरह लाल, स्निग्ध— चिकने थे, उनकी पगथलियाँ लाल कमल के पत्ते के समान मृदुल, सुकुमार तथा कोमल थीं, उनके शरीर में उत्तम पुरुषों के १००८ लक्षण प्रकट थे, उनके चरण पर्वत, नगर, मगर, सागर तथा चक्र रूप उत्तम चिह्नों और स्वस्तिक आदि मंगल-चिह्नों से अंकित थे, उनका रूप विशिष्ट असाधारण था, उनका तेज निर्धूम अग्नि की ज्वाला, विस्तीर्ण विद्युत् तथा अभिनव सूर्य की किरणों के समान था, वे प्राणातिपात आदि आस्रव - रहित, ममता-रहित थे, अकिंचन थे, भव- प्रवाह को उच्छिन्न कर चुके थे— जन्म-मरण से अतीत हो चुके थे, निरुपलेप द्रव्य-दृष्टि से निर्मल देहधारी तथा भाव दृष्टि से कर्मबन्ध के हेतु रूप उपलेप से रहित थे, प्रेम, राग, द्वेष और मोह का नाश कर चुके थे, निर्ग्रन्थ-प्रवचन के उपदेष्टा, धर्म-शासन के नायक — शास्ता, प्रतिष्ठापक तथा श्रमण- पति थे, श्रमण वृन्द से घिरे हुए थे, जिनेश्वरों के चौतीस बुद्ध- अतिशयों से तथा पैंतीस सत्य - वचनातिशयों से युक्त थे, आकाशगत चक्र छत्र, आकाशगत चंवर, आकाश के समान स्वच्छ स्फटिक से बने पाद - पीठ सहित सिंहासन, धर्मध्वज—ये उनके आगे चल रहे थे, चौदह हजार साधु तथा छत्तीस हजार साध्वियों से संपरिवृत — घिरे हुए थे, आगे से आगे चलते हुए, एक गाँव से दूसरे गाँव होते हुए सुखपूर्वक विहार करते हुए चम्पा के बाहरी उपनगर में पहुँचे, जहाँ से उन्हें चम्पा में पूर्णभद्र चैत्य में पधारना था। प्रवृत्ति - व्यापृत द्वारा सूचना १७- तणं से पवित्तिवाउए इमीसे कहाए लट्ठे समाणे हट्ठतुट्ठचित्तमाणंदिए, पीड्मणे, परमसोमणस्सिए, हरिसवसविसप्पमाणहियए, पहाए, कयबलिकम्मे, कयकोउय-मंगल- पायच्छित्ते, सुद्धपावेसाई मंगलाई वत्थाई पवरपरिहिए, अप्पमहग्घाभरणालंकियसरीरे सयाओ गिहाओ पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमित्ता चंपाए णयरीए मज्झमज्झेणं जेणेव कोणियस्स रण्णो गिहे, जेणेव बाहिरिया

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