Book Title: Agam 12 Upang 01 Aupapatik Sutra Sthanakvasi
Author(s): Amarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Padma Prakashan

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Page 253
________________ * * ROPPRODIGORIGORIGORTHORTHORVARIORYHORMAORYHORVAORNADAYADAVAOIVAOINAORNMORNIONawwantaram ६६. (प्रश्न) भंते ! जीव मोहनीय कर्म का वेदन (अनुभव) करता हुआ क्या मोहनीय कर्म का बंध करता है, अथवा वेदनीय कर्म का बंध करता है ? (उत्तर) गौतम ! मोहनीय कर्म का अनुभव करता हुआ जीव मोहनीय कर्म का भी बंध श करता है और वेदनीय कर्म का भी बंध करता है। किन्तु (सूक्ष्मसंपराय नामक दशम ॐ गुणस्थान में) चरम मोहनीय कर्म-(सूक्ष्म लोभ) का वेदन करता हुआ जीव केवल वेदनीय कर्म का ही बंध करता है, मोहनीय कर्म का नहीं। (मोहनीय कर्म का क्षय दशम गुणस्थान में ही हो जाता है, उसके आगे ११वें गुणस्थान से सयोगी केवली नामक तेरहवें गुणस्थान तक केवल वेदनीय कर्म का बंध है, मोहनीय कर्म का नहीं है।) ____66. (Q.) Bhante ! While experiencing the deluding karma does a being attract bondage of deluding karma (mohaniya karma), or that of experience engendering karma (vedaniya karma) ? (A.) Gautam ! While experiencing the deluding karma (mohaniya karma) a being attracts bondage of deluding karma (mohaniya karma) as well as that of experience engendering karma (vedaniya karma). But while experiencing the residual deluding karma or minute greed (charam mohaniya karma or sukshma lobh) a being attracts bondage of experience causing karma (vedaniya karma) only, and not that of deluding karma (mohaniya karma). (This happens at the tenth Gunasthan called Sukshmasamparaya where mohaniya karma is completely destroyed. Beyond that, from eleventh to thirteenth Gunasthan, Sayogi Kevali, there exists the bondage of vedaniya karma only and not that of mohaniya karma.) एकान्तबाल : एकान्तसुप्त का उपपात ६७. जीवे णं भंते ! असंजए, अविरए, अपडिहयपच्चक्खायपावकम्मे, सकिरिए, असंबुडे, एगंतदंडे, एगंतबाले, एगंतसुत्ते, ओसण्णतसपाणघाई कालमासे कालं किच्चा । रएसु उववज्जति ? हता उववज्जति। ६७. (प्रश्न) भंते ! जो जीव असंयत है, अविरत है, जिसने सम्यक्त्वपूर्वक पापकर्मों में ) को परित्याग नहीं किया है जो सक्रिय-(मिथ्यात्व क्रियायुक्त) है। असंवृत्त-संवररहित है, एकान्त दण्ड है-पाप-प्रवृत्तियों द्वारा अपने को तथा अन्य जीवों को सर्वथा दुःख व त्रास उपपात वर्णन (213) Description of Upapat Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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