Book Title: Agam 12 Upang 01 Aupapatik Sutra Sthanakvasi
Author(s): Amarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Padma Prakashan

View full book text
Previous | Next

Page 262
________________ *AR 69RO9009009009009009 पEKKRAMRODROD * इतने दुःखित, निराश तथा विषादग्रस्त हो जातें कि जीवन का भार ढो पाना अशक्य प्रतीत होता है। तब हारकर वे फाँसी लगाकर, पानी में डूबकर, पर्वत से झंपापात कर, आग में कूदकर, जहर खाकर या ऐसे ही किसी अन्य प्रकार से प्राण त्याग देते हैं। यदि दुःख झेलते हुए, मरते हुए उनके परिणाम * संक्लेशमय, तीव्र आर्त्त-रौद्रध्यानमय नहीं होते, तो वे मरकर वाणव्यन्तर देवों में उत्पन्न होते हैं। __यों प्राण-त्याग करना क्या आत्महत्या नहीं है? आत्महत्या तो बहुत बड़ा पाप है, आत्मघाती देव * कैसे होते हैं ? इत्यादि अनेक शंकाएँ यहाँ खड़ी होती हैं। * बात सही है, आत्महत्या महापाप है, नरक का हेतु है, जो आत्महत्या करता है, मरते समय वह * अत्यन्त कलुषित, क्लिष्ट एवं दूषित परिणामों से ग्रस्त होता है। इसीलिए वह घोर पापी कहा जाता है। वास्तव में आत्महत्या करने वाले के अन्त समय के परिणामों की धारा बड़ी जघन्य तथा निम्न कोटि की 2 होती है। वह घोर आर्त्त-रौद्र भाव में डूबा रहता है। वह बहुत ही शोक-विह्वल हो जाता है। किन्तु यहाँ २ जो प्रसंग वर्णित है, वह आत्महत्या में नहीं आता। क्योंकि उपयुक्त दशा में मरने वालों की भावना में * एक विवशता या निराशा होती है, वह सांसारिक दुःखों से छूट नहीं पा रहा है, उसकी कामनाएँ पूर्ण नहीं हो रही हैं। उसका लक्ष्य सध नहीं पा रहा है। मरना ही उसके लिए एक मात्र उपाय है। पर, वह मरते समय भयाक्रान्त नहीं होता, मन में आकुल तथा उद्विग्न नहीं होता। वह परिणामों में अत्यधिक दृढ़ता लिए रहता है, उसके भाव संक्लिष्ट नहीं होते। वह आर्त्त, रौद्रध्यान में एकदम निमग्न नहीं होता। दोनों की मानसिक स्थिति में यह बहुत सूक्ष्म अन्तर होता है, जिसे सामान्य व्यक्ति नहीं पहचान पाता, किन्तु ज्ञानीजन भावों की सूक्ष्मतम स्थिति को जानते हैं। मृत्यु के समय भावों की स्थिति ही अगली गति की निर्णायक होती है। इस प्रकार उसके अकाम निर्जरा सध जाती है और वह देव योनि प्राप्त कर लेता है। ___Elaboration-Aphorism 69 details people who die after purposeless penance but this aphorism further divides them into two categories. First (a) it informs about those who are gravely tortured for their crime of antagonism and aversion, and die in the process. If they are not in a tortured and angry state of mind they are reborn as Vanavyantar gods. This means that although they are unrighteous and tolerate pain not because of pious feelings aimed at spiritual purity or liberation, the good ing about them is that while enduring pain they are not overwhelmed oy misery and anger. They remain unmoved and die enduring those torments. The term asanklisht parinam (unperturbed attitude) has been used to convey this fact. Thus, this act of tolerating pain falls under the category of unintentional shedding of karmas (akaam nirjara) and leads * to a rebirth as gods. Thereafter (b) it informs about those who are unable to follow the rigours of strict ascetic-discipline and fall from grace, and those who fail to fulfill their desires for mundane pleasures. They become so miserable, * औपपातिकसूत्र (222) Aupapatik Sutra Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 260 261 262 263 264 265 266 267 268 269 270 271 272 273 274 275 276 277 278 279 280 281 282 283 284 285 286 287 288 289 290 291 292 293 294 295 296 297 298 299 300 301 302 303 304 305 306 307 308 309 310 311 312 313 314 315 316 317 318 319 320 321 322 323 324 325 326 327 328 329 330 331 332 333 334 335 336 337 338 339 340 341 342 343 344 345 346 347 348 349 350 351 352 353 354 355 356 357 358 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440