Book Title: Agam 12 Upang 01 Aupapatik Sutra Sthanakvasi
Author(s): Amarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Padma Prakashan

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Page 362
________________ the state of non-association or non-action ( ayogi ). Once the ayogi state is attained he transcends to the shaileshi state (rock-like stillness) within an antarmuhurt (less than fourty eight minutes) of infinite Samayas equivalent to the time taken in pronouncing the five short vowels a, i, u, ri and Iri with average speed. During the period he is in that shaileshi state he sheds infinite fractions of karmas (the subtle karma particles) prearranged or already existing in the innumerable qualitative sequences (gunashreni). This instantaneously brings to an end all the four karmas (non-vitiating karmas), namely Vedaniya (harma that causes feelings of happiness or misery), Ayushya (karma that determines the span of a given life-time), Naam (karma that determines the destinies and body types) and Gotra (karma responsible for the higher or lower status of a being). Shedding all karmas he completely abandons the audarik (gross physical), taijas (fiery) and karman (karmic) bodies through diverse methods of renunciation. Once the karmas are shed he rises taking a straight line vertical path (rijushreni) and not touching the intervening space-points, transcends in just one Samaya to the state of perfection (Siddha state) and ever pulsating knowledge (sakaropayoga). विवेचन - इस सूत्र में योग निरोध कर सिद्ध अवस्था - प्राप्ति का क्रम बताया है। यही क्रम उत्तराध्ययनसूत्र, अध्ययन २९ के सूत्र ७३-७४ में भी है। इसमें आये विशेष शब्द गुण श्रेणी तथा ऋजु श्रेणी का संक्षिप्त भाव इस प्रकार है गुण श्रेणी - केवली अवस्था में अवशिष्ट वेदनीय आदि चार कर्मों को शीघ्रतर क्षय करने के निमित्त उनके दलिकों को क्रम से प्रति समय पूर्व - पूर्व की अपेक्षा उत्तरोत्तर असंख्यात गुण वृद्धि से गुणित कर स्वल्प, बहु, बहुतर एवं बहुतम इस श्रेणी रूप में विभाजित करते हुए कर्म स्थिति का क्षय करना, गुण श्रेणी है। अर्थात् गुण श्रेणी के प्रथम समय में कर्मदलिक स्वल्प ग्रहण किये जाते हैं, द्वितीय समय में पूर्व की अपेक्षा असंख्यात गुणित दलिक ग्रहण किये जाते हैं, तृतीय समय में इससे भी असंख्यात गुणित कर्मलिक ग्रहण किये जाते हैं। इस प्रकार जब तक अन्तर्मुहूर्त्त का समय पूर्ण नहीं हो जाता क्रमशः उत्तरोत्तर असंख्यात गुण कर्मदलिकों को क्षय किया जाता है। कर्म पुद्गलों की इस श्रेणीबद्ध रचना का नाम गुणश्रेणी है । केवली भगवान प्रथम रचित गुण श्रेणिक कर्म को उस शैलेषी अवस्था में नष्ट करते हुए अनन्त कर्मांशों का क्षय कर देते हैं । ऋजु श्रेणीगत अस्पृशमान गति - जीव की गति दो प्रकार की श्रेणी में होती है - ऋजु और वक्र | मुक्त जीव का ऊर्ध्वगमन ऋजु श्रेणी - आकाश प्रदेश की मोड़रहित सरल सीधी गति से होता है। उस समय औपपातिकसूत्र Aupapatik Sutra Jain Education International (316) For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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