Book Title: Agam 12 Upang 01 Aupapatik Sutra Sthanakvasi
Author(s): Amarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Padma Prakashan

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Page 330
________________ *.. *...*. .*. * misguiding themselves and others by indulging in unrighteous behaviour and pushing themselves and others into the sin of contemptuousness. They neither repent (doing critical review or pratikraman) nor atone for their sinful deeds. When time comes ney abandon their earthly bodies and are born as Kilvishik (doing menial duties) gods in the lofty sixth heaven called Lantak dev-lok. * Their state (gati) is according to their respective status. Their life span there is thirteen Sagaropam (a metaphoric unit of time). They do not aspire for next birth (because they do not atone for their sins). (rest of the details as already mentioned) संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यक् योनि जीवों का उपपात ११८. से जे इमे सण्णिपंचिंदियतिरिक्खजोणिया पज्जत्तया भवंति, तं जहाजलयरा, थलयरा, खहयरा। तेसि णं अत्थेगइयाणं सुभेणं परिणामेणं, पसत्थेहिं अज्झवसाणेहिं, लेस्साहिं विसुज्झामाणीहिं तयावरणिज्जाणं कम्माणं खओवसमेणं ईहावूहमग्गणगवेसणं करेमाणाणं सण्णीपुबजाइसरणे समुप्पज्जइ, तए णं समुप्पण्णजाइसरणा समाणा सयमेव पंचाणुब्बयाइं पडिवजंति, पडिवज्जित्ता * बहूहिं सीलब्बय-गुणवेरमण-पच्चक्खाण-पोसहोववासेहिं अप्पाणं भावमाणा बहूहिं वासाई आउयं पालेंति, पालित्ता आलोइयपडिक्कंता, समाहिपत्ता कालमासे कालं किच्चा उक्कोसेणं सहस्सारे कप्पे देवत्ताए उववत्तारो भवंति। तहिं तेसिं गई, अट्ठारस सागरोवमाइं ठिई पण्णत्ता, परलोगस्स आराहगा, सेसं ते चेव। * ११८. जो ये संज्ञी-मन सहित, पर्याप्त-(आहारादि-पर्याप्तियुक्त) तिर्यंचयोनि में उत्पन्न (-पशु-पक्षी जाति के) जीव होते हैं, जैसे-जलचर-पानी में चलने वाले, स्थलचर-पृथ्वी पर चलने वाले तथा खेचर-आकाश में चलने वाले, उनमें से कइयों के उत्तम अध्यवसाय, शुभ * परिणाम तथा लेश्याओं की विशुद्धि होने के कारण ज्ञानावरण एवं वीर्यान्तराय कर्म का क्षयोपशम होने से अपने विषय में ईहा (सामान्य विचार), अपोह (विशेष चिन्तन), मार्गणा, * गवेषणा (अनुकूल-प्रतिकूल युक्तियों से विशेष विमर्श) करते हुए उन्हें अपनी संज्ञी अवस्था से पूर्ववर्ती भवों की स्मृति-जातिस्मरण ज्ञान उत्पन्न हो जाता है। जातिस्मरण ज्ञान उत्पन्न होने के कारण वे जीव स्वयं ही पाँच अणुव्रतों को स्वीकार कर लेते हैं। फिर अनेकविध शीलव्रत, गुणव्रत, विरमण, प्रत्याख्यान-त्याग, पौषधोपवास आदि द्वारा आत्मा को भावित करते हुए बहुत वर्षों तक जीवित रहते हैं। फिर वे अपने किये हुए * औपपातिकसूत्र (284) Aupapatik Sutra Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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