Book Title: Agam 12 Upang 01 Aupapatik Sutra Sthanakvasi
Author(s): Amarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Padma Prakashan

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Page 335
________________ concepts, spreading falsehood and preaching against the sermon of the Jina. When time comes, they abandon their earthly bodies and are born as gods in the lofty Graiveyak dev-lok. Their state (gati) is according to their respective status. Their life-span there is upto thirty one Sagaropam (a metaphoric unit of time). They are not true spiritual aspirants for next birth (because they do not atone for their sins). (rest of the details as already mentioned) विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में जिन सात निह्नवों का उल्लेख हुआ है- आचार्य अभयदेवसूरि ने अपनी वृत्ति में संक्षेप में उनकी चर्चा की है। निह्नवों के विषय में यत्र-तत्र अनेक ग्रन्थों में उल्लेख प्राप्त होते हैं । निन्हवों के विषय में संक्षेप में परिचय इस प्रकार है सात निह्नव निह्नव के रूप में यहाँ उनका उल्लेख है, जिनका जैन तत्त्व ज्ञान के किसी एक विषय में मतभेद हुआ, मतभेद होने पर जो भगवान महावीर के शासन से पृथक् हुए, किन्तु जिन्होंने अन्य धर्म-सम्प्रदाय को स्वीकार नहीं किया इसलिए वे जैन - शासन के एक विषय का अपलाप करने वाले निह्नव कहलाये । निन्हव वे होते हैं, जो किसी विषय को लेकर हठाग्रह या मिथ्या अहंकार के कारण विपरीत प्ररूपणा करते हैं। वे सात हुए हैं उनमें से दो भगवान महावीर के कैवल्य-प्राप्ति के बाद हुए और शेष पाँच निर्वाण के पश्चात् । इनका अस्तित्त्वकाल श्रमण भगवान महावीर के कैवल्य-प्राप्ति के चौदह वर्ष से निर्वाण के पश्चात् पाँच सौ चौरासी वर्ष तक का है - (१) बहुरत - भगवान महावीर के कैवल्य - प्राप्ति के चौदह वर्ष पश्चात् श्रावस्ती में बहुरतवाद की उत्पत्ति हुई। इसके प्ररूपक जमालि थे। ये क्षत्रिय राजकुमार भगवान महावीर के जामाता थे। बहुरतवादी कार्य की सम्पन्नता में दीर्घकाल की अपेक्षा मानते हैं। वह क्रियमाण को कृत नहीं मानते, अपितु वस्तु के पूर्ण निष्पन्न होने पर ही उसका अस्तित्त्व स्वीकार करते हैं । (२) जीवप्रादेशिक - भगवान महावीर के कैवल्य - प्राप्ति के सोलह वर्ष पश्चात् ऋषभपुर जीवप्रादेशिकवाद की उत्पत्ति हुई। इसके प्रवर्त्तक तिष्यगुप्त थे । जीव के असंख्य प्रदेश हैं, परन्तु जीवप्रादेशिक मतानुसारी जीव के चरम प्रदेश को ही जीव मानते हैं, शेष प्रदेशों को नहीं । (३) अव्यक्तिक- भगवान महावीर के परिनिर्वाण के दो सौ चौदह वर्ष पश्चात् श्वेताम्बिका नगरी में अव्यक्तवाद की उत्पत्ति हुई । इसके प्रवर्त्तक आचार्य आसाढ़ के शिष्य थे । अव्यक्तवादी के शिष्य अनेक थे, अतएव उनके नामों का उल्लेख उपलब्ध नहीं है । मात्र उनके पूर्वावस्था के गुरु का नामोल्लेख किया गया है। (४) सामुच्छेदिक - भगवान महावीर के निर्वाण के दो सौ बीस वर्ष पश्चात् मिथिलापुरी में समुच्छेदवाद की उत्पत्ति हुई। इसके प्रवर्त्तक आचार्य अश्वमित्र थे । ये प्रत्येक पदार्थ का सम्पूर्ण विनाश मानते हैं एवं एकान्त समुच्छेद का निरूपण करते हैं। अम्बड़ परिव्राजक प्रकरण Jain Education International (289) For Private & Personal Use Only Story of Ambad Parivrajak www.jainelibrary.org

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