Book Title: Agam 12 Upang 01 Aupapatik Sutra Sthanakvasi
Author(s): Amarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Padma Prakashan

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Page 346
________________ sexietariasir * * * * * * * Anchahekh 2009069409 RODARDQ SAJAPANA ७५ ऊसासणीसासेहिं अणंतं अणुत्तरं, निव्वाघायं, निरावरणं, कसिणं, पडिपुण्णं * केवलवरनाणदंसणं उप्पादेंति, तओ पच्छा सिज्झिहिंति जाव अंतं करेहिति। १२७. इन श्रमण भगवंतों में से कतिपय अनगारों को केवलज्ञान, केवलदर्शन शीघ्र उत्पन्न नहीं होता, वे बहुत वर्षों तक छद्मस्थ-पर्याय में रहते हुए संयम का पालन करते हैं। फिर कभी चाहे किसी प्रकार के रोग आदि विघ्न उत्पन्न हों, चाहे नहीं हों, तो भी वे भोजन का परित्याग कर देते हैं। बहुत दिनों का अनशन करते हैं। अनशन सम्पन्न कर, जिस लक्ष्य से कष्टपूर्ण संयम-पथ स्वीकार किया, उसकी सम्यक् आराधना कर अपने अन्तिम उच्छ्वास निःश्वास में (अन्तिम समय में) अनन्त, अनुत्तर, निर्व्याघात, निरावरण, कृत्स्न, प्रतिपूर्ण * केवलज्ञान, केवलदर्शन प्राप्त करते हैं। तत्पश्चात् सिद्ध होते हैं, सब दुःखों का अन्त करते हैं। ____127. Some of these Shramans do not acquire keval-jnana and * kevaldarshan (ultimate knowledge and perception) soon. They * observe ascetic-discipline for many years living as chhadmasth (one who is short of omniscience due to residual karmic bondage). At some opportune moment they abandon food irrespective of being sick and tormented or not. After a prolonged period of fasting and pursuing the goal for which they had accepted the rigorous path of ascetic-discipline, they acquire the infinite, unique, unimpeded, unveiled, absolute and complete keval-jnana and keval-darshan (ultimate knowledge and perception) during their last breath. After that they attain the status of Siddha and end all miseries. एकभवावतारी श्रमण १२८. एगच्चा पुण एगे भयंतारो पुवकम्मावसेसेणं कालमासे कालं किच्चा उक्कोसेणं सव्वट्ठसिद्धे महाविमाणे देवत्ताए उववत्तारो भवंति। तहिं तेसिं गई, तेतीसं * सागरोवमाइं ठिई, आराहगा, सेसं तं चेव। १२८. उन अनगार भगवंतों में कुछ ऐसे भी अनगार होते हैं जो एक ही भव करने " वाले भविष्य में केवल एक ही बार मनुष्य-देह धारण करने वाले अथवा भयत्राता* संयममयी साधना द्वारा संसार भय से अपना परित्राण करने वाले साधक, जिनके पूर्व संचित * कर्मों में से कुछ कर्म अवशेष रह जाते हैं, जिस कारण मृत्युकाल आने पर देह त्यागकर * उत्कृष्ट सर्वार्थसिद्ध महाविमान में देव रूप में उत्पन्न होते हैं, वहाँ अपने स्थान के अनुरूप उनकी गति होती है। उनकी स्थिति तेतीस सागरोपम प्रमाण होती है। वे परलोक के आराधक होते हैं। (शेष वर्णन पूर्ववत् जानें।) 4 औपपातिकसूत्र Aupapatik Sutra * GRUP ROYAYOYAYOYALOVA YOYALOVALYMO PROPRIO RODRO RODRIARD DR098 (300) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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