Book Title: Agam 12 Upang 01 Aupapatik Sutra Sthanakvasi
Author(s): Amarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Padma Prakashan

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Page 281
________________ ७७. वे परिव्राजक चार वेदों के ऋक्, यजु, साम, अथर्वण-तथा पाँचवें इतिहास, छठे निघण्टु के अध्येता होते हैं। उन्हें वेदों का सांगोपांग परिज्ञान था। वे चारों वेदों के (सारक) अध्यापन द्वारा सम्प्रवर्तक अथवा स्मारक-औरों को स्मरण कराने वाले, (पारग) वेदों के पारगामी, (धारक) उन्हें स्मृति में बनाये रखने में सक्षम तथा वेदों के छहों अंगों के ज्ञाता थे। वे षष्टितन्त्र (कपिलशास्त्र) में विशारद या निपुण थे। (संख्यान) गणित विद्या, (शिक्षा) a ध्वनिविज्ञान-वेद मंत्रों के उच्चारण के विशिष्ट विज्ञान, (कल्प)-याज्ञिक कर्मकाण्डविधि, (व्याकरण) शब्दशास्त्र, (छन्द) पिंगलशास्त्र, (निरुक्त) वैदिक शब्दों के निर्वचनात्मक या व्युत्पत्तिमूलक व्याख्या-ग्रन्थ, ज्योतिषशास्त्र तथा अन्य ब्राह्मणों के लिए हितकारी शास्त्र अथवा ब्राह्मण-ग्रन्थों-के प्रमुख विषय में सुपरिपक्व ज्ञानयुक्त होते थे। THE RELIGIOUS TEXTS OF PARIVRAJAKS 77. The texts these Parivrajaks studied included four Vedas–Rik, Yaju, Sama and Atharvan, fifth one the history and sixth one Nighantu (lexicon). They had complete knowledge of the Vedas and their auxiliaries. They were propagators of the Vedas through teaching (saraga = sarak) and inspiring others to memorize (saraga = smarak) them. They were profound scholars (parag) of the Vedas and were capable of retaining them in memory (dharak) besides being experts of all their six limbs. They were experts of Shashtitantra (the works of Kapil). They had profound knowledge of mathematics (sankhyan), phonetics or the special science of a pronouncing Vedic mantras (shiksha), ritual procedures of performing Yajnas (Kalp), grammar (vyakaran), poetics (chhand), etymology or the knowledge of origin and formation of Vedic termš (Nirukt), astrology (jyotish) and other scriptures useful to Brahmins. परिव्राजकों का शौच धर्म ७८. ते णं परिवाया दाणधम्मं च सोयधम्मं च तित्थाभिसेयं च आघवेमाणा, पण्णवेमाणा, परवेमाणा विहरंति। जं णं अहं किं चि असुई भवइ, तं णं उदएण य मट्टियाए य पक्खालियं सुई भवति। एवं खलु अम्हे चोक्खा, चोक्खायारा, सुई, सुइसमायारा भवित्ता अभिसेयजलपूयप्पाणो अविग्घेणं सग्गं गमिस्सामो। ____ ७८. वे परिव्राजक दानधर्म, शौचधर्म, दैहिक शुद्धि एवं स्वच्छतामूलक आचार तीर्थाभिषेक-तीर्थस्नान का जनसमुदाय में कथन करते हुए, (प्रज्ञापन) समझाते हुए, NAONVAON & उपपात वर्णन (241) Description of Upapata E 4. 4 4 ଲିଏ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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