Book Title: Agam 12 Upang 01 Aupapatik Sutra Sthanakvasi
Author(s): Amarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Padma Prakashan

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Page 276
________________ and Sevali, lived within larger groups of even five hundred hermits. They subsisted on putrefied roots, leaves and moss. Uttaradhyayan Tika informs that these hermits used to go for pilgrimage of Ashtapad and a large group of them was enlightened by Ganadhar Gautam. The forest dwelling mendicants were called Tapas (hermit). They lived in forests after building their hermitage. They performed yajnas and mortified their bodies by five-fire penance. They spent considerable time in collecting wild roots and fruits. Vyavahar Bhashya mentions that these hermits collected grains fallen around barns and grain-grinders and cooked their food themselves. Some times they would eat just a spoon full of food and at others the meagre quantity of food particles that stuck on a piece of cloth thrown on a heap of food. There has been a long and wide spread tradition of hermits in the country. For more details about palyopam and other metaphoric units of time refer to Illustrated Anuyog-dvar Sutra, Part II. प्रव्रजित श्रमणों का उपपात ७५. से जे इमे जाव सन्निवेसेंसु पव्वइया समणा भवंति, तं जहा - कंदप्पिया, कुक्कुइया, मोहरिया, गीयरइप्पिया, नच्चणसीला, ते णं एएणं विहारेणं विहरमाणा बहूइं वासाइं सामण्णपरियायं पाउणंति, बहूइं वासाई सामण्णपरियायं पाउणित्ता तस्स ठाणस्स अणालोइय अप्पडिक्कंता कालमासे कालं किच्चा उक्कोसेणं सोहम्मे कप्पे कंदप्पिएसु देवेसु देवत्ताए उववत्तारो भवंति । तर्हि तेसिं गई, सेसं तं चेव णवरं पलिओवमं वाससयसहस्समब्भहियं ठिई । ७५. ग्राम, सन्निवेश आदि स्थानों में (ये) जो प्रव्रजित श्रमण होते हैं जैसे - कान्दर्पिक - नानाविध हास-परिहास या हँसी-मजाक करने वाले, कौकुचिक - भाँड़ों की तरह भौं, आँख, मुँह, हाथ, पैर आदि से कुत्सित चेष्टाएँ कर दूसरों को हँसाने वाले, असम्बद्ध या ऊटपटांग बोलने वाले, मौखरिक - संगीत और क्रीड़ा में विशेष अभिरुचि रखने वाले, गीत रतिप्रिय - गीतप्रिय लोगों को चाहने वाले तथा नर्तनशील - नाचने की प्रकृति वाले, जो अपनी-अपनी जीवन-शैली के अनुसार आचरण करते हुए बहुत वर्षों तक श्रमणपर्याय का पालन करते हैं तथा अन्त समय में उक्त पापाचरणों का आलोचन - प्रतिक्रमण नहीं करते, गुरु के समक्ष आलोचना कर दोषों से निवृत्त नहीं होते, वे मृत्यु आने पर देह त्यागकर उत्कृष्ट सौधर्मकल्प नामक प्रथम देवलोक में हास्य- -क्रीड़ा-प्रधान देवों में उत्पन्न होते औपपातिकसूत्र Aupapatik Sutra Jain Education International (236) For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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