Book Title: Agam 03 Ang 03 Sthananga Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Agam Prakashan Samiti

View full book text
Previous | Next

Page 19
________________ [१६] अंगों का अध्ययन करते थे। कितने ही पूर्वों का अध्ययन करते थे।" और कितने ही द्वादश अंगों को पढ़ते थे। इस प्रकार अध्ययन के क्रम में अन्तर था। शेष श्रमण- श्रमणियाँ आध्यात्मिक साधना में ही अपने आप को लगाये रखते थे। जैन श्रमणों के लिए जैनाचार का पालन करना सर्वस्व था। जब कि ब्राह्मणों के लिए वेदाध्ययन करना सर्वस्व था । वेदों का अध्ययन गृहस्थ जीवन के लिए भी उपयोगी था। जब कि जैन आगमों का अध्ययन केवल जैन श्रमणों के लिये उपयोगी था, और वह भी पूर्ण रूप से साधना के लिए नहीं। साधना की दृष्टि से चार अनुयोगों में चरण करणानुयोग ही विशेष रूप से आवश्यक था। शेष तीन अनुयोग उतने आवश्यक नहीं थे। इसलिये साधना करने वाले श्रमण- श्रमणियों की उधर उपेक्षा होना स्वाभाविक था । द्रव्यानुयोग आदि कठिन भी थे। मेधावी सन्त-सतियां ही उनका गहराई से अध्ययन करती थीं, शेष नहीं । हम पूर्व ही बता चुके हैं कि तीर्थंकर भगवान् अर्थ की प्ररूपणा करते हैं, सूत्र रूप में संकलन गणधर करते हैं । एतदर्थ ही आगमों में यत्र-तत्र 'तस्स णं अयमट्ठे पण्णत्ते' वाक्य का प्रयोग हुआ है। जिस तीर्थंकर के जितने गणधर होते हैं, वे सभी एक ही अर्थ को आधार बनाकर सूत्र की रचना करते हैं। कल्पसूत्र की स्थविरावली में श्रमण भगवान् महावीर के नौ गण और ग्यारह गणधर बताये हैं।" उपाध्याय विनयविजय जी ने गण का अर्थ एक वाचना ग्रहण करने वाला ' श्रमणसमुदाय' किया है । १४ और गण का दूसरा अर्थ स्वयं का शिष्य समुदाय भी है। कलिकाल सर्वज्ञ आचार्य हेमचन्द्र ने १५ यह स्पष्ट किया है कि प्रत्येक गण की सूत्रवाचना पृथक्-पृथक् थी । भगवान् महावीर के ग्यारह गणधर और नौ गण थे। नौ गणधर श्रमण भगवान् महावीर के सामने ही मोक्ष पधार चुके थे और भगवान् महावीर के परिनिर्वाण होते ही गणधर - इन्द्रभूति गौतम केवली बन चुके थे। सभी ने अपने-अपने गण सुधर्मा को समर्पित किये थे, क्योंकि वे सभी गणधरों में दीर्घजीवी थे।" आज जो द्वादशांगी विद्यमान है वह गणधर सुधर्मा की रचना है। १०. (क) सामाइयमाइयाई एकारस अंगाई अहिज्ज‍ अंतगड ६ वर्ग, अ. १५ (ख) अन्तगड ८ वर्ग, अ. १ (ग) भगवतीसूत्र २/१/९ (घ) ज्ञाताधर्म अ. १२ ज्ञाता २/१ ११. (क) चोद्दसपुव्वाइं अहिज्ज‍— अन्तगड ३ वर्ग, अ. ९ (ख) अन्तगड ३ वर्ग, अ. १ (ग) भगवतीसूत्र ११-११-४३२/१७-२-६१७ अन्तगड वर्ग-४, अ. १ १२. १३. तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स नवगणा इक्कारस गणहरा हुत्था । १४. एक वाचनिको यतिसमुदायो गणः । १५. एवं रचयतां तेषां सप्तानां गणधारिणाम् । परस्परमजायन्त विभिन्नाः सूत्रवाचना: ॥ अकम्पिताऽचल भ्रात्रोः श्रीमेतार्यप्रभासयोः । परस्परमजायन्त सदृक्षा एव वाचनाः ॥ श्री वीरनाथस्य गणधरेष्वेकादशस्वपि । द्वयोर्द्वयोर्वाचनयोः साम्यादासन् गणा नव ॥ — त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र - पर्व १०, १६. सामिस्स जीवंते णव कालगता, जो य कालं करेति सो सुधम्मसामिस्स गणं देति, परिनिव्वुए परिनिव्वुता । कल्पसूत्र —कल्पसूत्र सुबोधिका वृत्ति सर्ग ५, श्लोक १७३ से १७५ इंदभूती सुधम्मो य सामिम्मि - आवश्यकचूर्णि, पृ. ३३९

Loading...

Page Navigation
1 ... 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172 173 174 175 176 177 178 179 180 181 182 183 184 185 186 187 188 189 190 191 192 ... 827