Book Title: Agam 03 Ang 03 Sthananga Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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[१५] को सूत्रबद्ध करने वाले गणधर या स्थविर हैं । नन्दीसूत्र आदि में आगमों के प्रणेता तीर्थंकर कहे हैं। जैसे आगमों का प्रामाण्य गणधरकृत होने से ही नहीं, अपितु अर्थ के प्रणेता तीर्थंकर की वीतरागता और सर्वार्थसाक्षात्कारित्व के कारण है । गणधर केवल द्वादशांगी की रचना करते हैं। अंगबाह्य आगम की रचना करने वाले स्थविर हैं। अंगबाह्य आगम का प्रामाण्य स्वतन्त्र भाव से नहीं, अपितु गणधरप्रणीत आगम के साथ अविसंवाद होने से है। आगम की सुरक्षा में बाधाएं
वैदिक विज्ञों ने वेदों को सुरक्षित रखने का प्रबल प्रयास किया है, वह अपूर्व है, अनूठा है। जिसके फलस्वरूप ही आज वेद पूर्ण रूप से प्राप्त हो रहे हैं। आज भी शताधिक ऐसे ब्राह्मण वेदपाठी हैं, जो प्रारम्भ से अन्त तक वेदों का शुद्ध-पाठ कर सकते हैं। उन्हें वेद पुस्तक की भी आवश्यकता नहीं होती। जिस प्रकार ब्राह्मण पण्डितों ने वेदों की सुरक्षा की, उसी तरह आगम और त्रिपिटकों की सुरक्षा जैन और बौद्ध विज्ञ नहीं कर सके। जिसके अनेक कारण हैं। उसमें मुख्य कारण यह है कि पिता की ओर से पुत्र को वेद विरासत के रूप में मिलते रहे हैं। पिता अपने पुत्र को बाल्यकाल से ही वेदों को पढ़ाता था। उसके शुद्ध उच्चारण का ध्यान रखता था। शब्दों में कहीं भी परिवर्तन नहीं हो, इसका पूर्ण लक्ष्य था। जिससे शब्द-परम्परा की दृष्टि से वेद पूर्ण रूप से सुरक्षित रहे। किन्तु अर्थ की उपेक्षा होने से वेदों की अर्थ-परम्परा में एकरूपता नहीं रह पाई। वेदों की परम्परा वंशपरम्परा की दृष्टि से अबाध गति से चल रही थी। वेदों के अध्ययन के लिए ऐसे अनेक विद्याकेन्द्र थे जहाँ पर केवल वेद ही सिखाये जाते थे। वेदों के अध्ययन और अध्यापन का अधिकारी केवल ब्राह्मण वर्ग था। ब्राह्मण के लिये यह आवश्यक ही नहीं अपितु अनिवार्य था कि वह जीवन के प्रारम्भ में वेदों का गहराई से अध्ययन करे। वेदों का बिना अध्ययन किये ब्राह्मण वर्ग का समाज में कोई भी स्थान नहीं था। वेदाध्ययन ही उसके लिए सर्वस्व था। अनेक प्रकार के क्रियाकाण्डों में वैदिक सूक्तों का उपयोग होता था। वेदों को लिखने और लिखाने में भी किसी प्रकार की बाधा नहीं थी। ऐसे अनेक कारण थे, जिन सुरक्षित रह सके, किन्तु जैन आगम पिता की धरोहर के रूप में पुत्र को कभी नहीं मिले। दीक्षा ग्रहण करने के बाद गुरु अपने शिष्यों को आगम पढ़ाता था। ब्राह्मण पण्डितों को अपना सुशिक्षित पुत्र मिलना कठिन नहीं था। जबकि जैन श्रमणों को सुयोग्य शिष्य मिलना उतना सरल नहीं था। श्रतज्ञान की दष्टि से शिष्य का मेधावी और जिज्ञास होना आवश्यक था। उसके अभाव में मन्दबद्धि व आलसी शिष्य यदि श्रमण होता तो वह भी श्रत का अधिकारी था। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शद्र ये चारों ही वर्ण वाले बिना किसी संकोच के जैन श्रमण बन सकते थे। जैन श्रमणों की आचार-संहिता का अध्ययन करें तो यह स्पष्ट है कि दिन और रात्रि के आठ प्रहरों के चार प्रहर स्वाध्याय के लिए आवश्यक माने गये, पर प्रत्येक श्रमण के लिये यह अनिवार्य नहीं था कि वह इतने समय तक आगमों का अध्ययन करे ही। यह भी अनिवार्य नहीं था, कि मोक्ष प्राप्त करने के लिए सभी आगमों का गहराई से अध्ययन आवश्यक ही है। मोक्ष प्राप्त करने के लिए जीवाजीव का परिज्ञान आवश्यक था। सामायिक आदि आवश्यक क्रियाओं से मोक्ष सुलभ था। इसलिए सभी श्रमण और श्रमणियाँ आगमों के अध्ययन की ओर इतने उत्सुक नहीं थे। जो विशिष्ट मेधावी व जिज्ञासु श्रमण-श्रमणियाँ थीं, जिनके अन्तर्मन में ज्ञान और विज्ञान के प्रति रस था, जो आगमसाहित्य के तलछट पर पहुंचना चाहते थे, वे ही आगमों का गहराई से अध्ययन, चिन्तन, मनन और अनुशीलन करते थे। यही कारण है कि आगमसाहित्य में श्रमण और श्रमणियों में अध्ययन के तीन स्तर मिलते हैं। कितने ही श्रमण सामायिक से लेकर ग्यारह
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आवश्यक नियुक्ति १९२ नन्दीसूत्र ४० (क) विशेषावश्यक भाष्य गा. ५५० (ख) बृहत्कल्पभाष्य गा. १४४ (ग) तत्त्वार्थभाष्य १-२० (घ) सर्वार्थसिद्धि १-२०