Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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सूत्रता सूबे ग्रामधर्मान् परित्यज्य संयमेस्थिति माप्नुहि । इत्थं तीर्थकरैः प्रोक्तं संयमो हि महद्धनम् ॥१॥ इति ॥२५॥
जे एयं चरंति आहियं नाएणं महया महेसिया ।
८ ९ १० ११ १३ १४ १२ ते उठिया ते समुट्ठिया अन्नोन्नं सारंति धम्मआ॥२६॥
__ छाया__ य एनं चरन्त्याख्यातं ज्ञातेन महता महर्षिणा ।
ते उत्थितास्ते समुत्थिता अन्योऽन्यं सारयन्ति धर्मतः ॥२६॥ 'ग्रामधर्मान् परित्यज्य ' इत्यादि ।
'ग्रामधर्मों को त्यागकर संयम में स्थित होओ। संघम ही महान् धन हैं। ऐसा तीर्थकरों का कथन हैं ॥२५॥
शब्दार्थ-'महया--महता' महान् ‘महेसिणा। अनुकूल प्रतिकूल उपसर्ग के सहन करने से महर्षि ऐसे 'नाएणं--ज्ञातेन' ज्ञातपुत्र के द्वारा 'आहियं-- आख्यातम् ' कहे गये 'एयं-एनम्' इस अहिंसालक्षण धर्म को 'जे-ये' जो पुरुष 'चरंति--चरन्ति' आचरणकरण करते हैं 'ते--ते । वे ही 'उहिए-उत्थिताः उत्थित हैं तथा 'ते--ते' वेही 'समुट्ठिया-समुत्थिताः सम्यक् प्रकार से उत्थित हैं एवं 'धम्मओ-धर्मतः' धर्म से पतित होते हुए 'अन्नोन्न--अन्योन्यम्' एक दूसरे को वे ही 'सारंति--सारयन्ति' पुनः सद्धर्म में प्रवृत्त करते हैं ॥२६॥ यावे छे मन्यत्र ५९ को धुं छे :- ग्रामधर्मान् परित्यज्य” त्या
“श्रामधनी त्या प्रशने यममा प्रवृत्त 25 मा. संयम०४ महाधन छ." એવું તીર્થકરનું કથન છે. આ ગાથા ૨૫
watथ:--'महया-महता' महान् ‘महेलिणा-महर्षिणा' मनु प्रति असना सहन ४२वाथी भाष मे॥ 'नाएण-वातेन' ज्ञातपुत्रना द्वारा 'आहिय-आख्यातम्' इस 'एय-एनम्' 20 महिसा सक्ष धर्मने 'जे-ये ५३५ 'चरति चरन्ति' माय२९५ ४२ छ. 'ते-ते' से 'उहिए-उत्थिताः' अथित छे तथा ते-ते मे 'समु. दिया-समस्थिताः' सभ्य माथी स्थित छ मेवम 'धम्मओ-धर्मतः' धर्मथा पतित थवाथी 'अन्नोन्न-अन्योन्यम्' मे४ीने से 'सारति-सारयन्ति' पुन: सद्धर्भमा પ્રવૃત્ત કરે છે. પરદા
શ્રી સૂત્ર કૃતાંગ સૂત્રઃ ૧

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