Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti

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Page 686
________________ सूत्रकृताङ्गसूत्रो नरके पतन्तं प्राणिनं मातापितृपुत्रकलाधनादयो न रक्षन्ति, इत्युक्तम् । तदेव पुनर्वस्तरेण कथयति सूत्रकारः-'अब्भागमितंमि' इत्यादि । अब्भागमितंमि वा दुहे अहवा उक्कमिते भवंतिए । ૧૧ ૧૨ ૧૩ एगस्स गई य आगई विउमंता सरणं न मन्नई ॥१७॥ छायाअभ्यागते' या दुःखेऽथयोत्क्रान्ते भवान्तिके । एकस्य गतिश्चागति,-विद्वान् शरणं न मन्यते ॥१७॥ अन्वयार्थ:-- (या) अथवा (अब्भागमितंमि) अभ्यागते समागते (दुहे) दुःखे पूर्वोपात्तासातावेदनीये सति एकाकी एवानुभवति दुःखमित्यर्थः । (अया) ___नरक में पड़ने वाले प्राणी को माता पिता पुत्र, कलत्र और धन आदि बचा नहीं सकते, यह कहा जा चुका है' यही विषय सूत्रकार विस्तार से कहते है- "अब्भागमितंमि" इत्यादि । शब्दार्थ- 'वा-या' अथवा 'अब्भागमितंमि दुहे-अभ्यागते दुःखे' दुःख आने पर असातावेदनीय रूप दुःख के आने पर उसको अकेला ही भोगता है 'अहवाअथवा' अथवा 'उक्कमिते--उत्क्रान्ते' उपक्रमके कारणों से आयु के नाश होने पर 'भवंतिए--भवान्तिके' अथया मृत्यु उपस्थित होने पर 'एगस्स--एकस्य' अकेला को ही 'गई य--गतिश्च' जाना 'आगई य--आगतिश्च' और आना होता है 'विउमंता--विद्वान्' अतः विद्वान् पुरुष 'सरणं--शरणम्' धन आदि को अपना शरण 'न मन्नई-न मन्यते' नहीं मानता है ॥१७॥ ___ न२४भी पना२ सपने, भात, पिता, पुत्र, पत्नी, धन, माहि ५५ पायापी શકતું નથી, એવું પ્રતિપાદન આગલા સૂત્રમાં કરવામાં આવ્યું. હવે સૂત્રકાર એજ વાતનું विस्तारपूर्व पनि ४२ छ- अब्भागमित मि त्याहि शहाथ-'या-या' अथवा 'अब्भागमित मि दुहे-अभ्यागते दुःखे दुः५ मापी पडे त्यारे मसातावहनीय वगेरे हुमाने सोगवे छ 'अहवा-अथवा' अथवा 'उक्कमित्त -उत्क्रान्ते' अ५४मना रणथी आयुष्य नाश थाय त्यारे 'भय तिए-भवान्तिके' अथवा भृत्यु उपस्थित थाय त्यारे 'एगस्स-एकस्य' साने ४ ‘गई य-गतिश्च' न्यु 'आगई य-आगतिश्च' मने भावयु थाय छे 'विउम ता-विद्वान्' मत: विद्वान् ५३५ 'सरण-शरणम्' धन योरेने पातानु श२९५ 'न मन्नई-न मन्यते' मानता नथी ॥१७॥ सू. ८५ શ્રી સૂત્ર કૃતાંગ સૂત્ર : ૧

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