Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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सूत्रकृतानसूत्रे -छायामा प्रेक्षस्य पुरा प्रणामकान् अभिकांक्षे उपधिं धूनयितुम् । ये दुर्मनसस्तेषु नो नतास्ते जानन्ति समाधिमाख्यातम् ॥२७॥
-अन्वयार्थ(पुरा) पुरा पूर्वकाले भुक्तान् (पणामए) प्रणामकान् शब्दादिविषयान् (मा पेह) मा प्रेक्षस्य, हे शिष्य ! स्मरणं मा कुरु, (उवर्हि) उपधिमष्टविध कर्म (धुणित्तए) धूनयितुं नाशयितुम् (अभिकंखे) अभिकांक्षेत-इच्छेत् । (दुमण) दुर्म नसः मनोदृषकाः शब्दादिविषयाः (तेहिं) तेषु (जे) ये पुरुषाः (णो णया) नो
गुरु शिष्य को समझाता है- "मा पेह' इत्यादि ।
शब्दार्थ---'पुरा--पुरा' पूर्वकाल में भोगे हुए‘पणामए-प्रणामकान् ' शब्दादिविषयों को ‘मा पेह--मा प्रेक्षस्व' स्मरण न करो 'उपहि-उपधिम् । माया को अथवा आठ प्रकार के कर्मों को 'धुणित्तए-धूनयितुम् ' दूर करने की 'अभिकंखे--अभिकांक्षेत्' इच्छा करो 'दूमण--दुर्मनसः' मन को दूषित बनाने वाले जो शब्दादि विषय है 'तेहिं--तेषु' उनमें 'जे-ये' जो पुरुष ‘णो णया-नो नताः' आसक्त नहीं है वे 'आहियं-आख्यातम्' अपने आत्मामें स्थित 'समाधिम्' रागद्वेषके त्यागरूप अथवा धर्मध्यान को 'जाणंति-जानन्ति' जानते हैं ॥२७॥
अन्वयार्थ पूर्व काल में भोगे हुए शब्द आदि विषयभोगों को न देखो हे शिष्य ! उनका स्मरण न करो । उपधि अर्थात आठ प्रकार के कर्मों को नष्ट करने की अभिलाषा रक्खो। मन को विकृत करने वाले विषयभोगों में जो
गुरुशिष्यने सभनय छ-" मा पेह" त्याह
शहाथ-'पुरा-पुरा' पूर्व सभा गयेदर 'पणामए--प्रणामकान्' ५४ वगैरे विषयानु'मा पेह-मा प्रेक्षस्व' भ२९ न। । 'उयहि-उपधिम्' भायाने अथवा 18 प्रा२ना नि 'धुणित्तए-धूनयितुम्' इ२ ४२पानी 'अभिक खे-अभिकांक्षेत्' ७२छा अशे. 'दुमण-दुर्मनसः' भनने दूषित मनावा पा ५४ पगेरे विषय छ तेहि-तेषु' तभा 'जे-ये पुरुष ‘णो णया-नो नता' यासत नथी 'ते-ते ते पु३५ 'आहिय - आख्यातम्' पोताना २मात्मामा २स 'समाहि-समाधिम्' रागद्वेषना त्या॥३५ अथवा धमध्यानने 'जाणति-जानन्ति' . ॥२७॥
सूत्रार्थહે શિષ્ય ! પૂર્વકાળમાં ભેગવેલા શબ્દાદિ વિષય ભેગોનું સ્મરણ ન કરો. ઉપાધિ એટલે કે આઠ પ્રકારના કર્મોને નાશ કરવાની અભિલાષા રાખી. મનને વિકૃત કરનારા
શ્રી સૂત્ર કૃતાંગ સૂત્રઃ ૧