Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु अ. २ उ. ३ साधूना परिषहोएसर्ग सहनोपदेशः ६३१ भयोपार्जितकम संवृतात्मनः संयमानुष्ठानेन क्षीयते। यः संवृतात्मा संयमानुष्ठानं पालयति, स जन्मजरामरणादिकं विधूय मोक्षं प्राप्नोति, इति॥१॥
दीक्षितोऽपि, कृतसंयमानुष्ठानोऽपि तस्मिन्नेव जन्मनि मोक्षं नासादयति, तादृशपुरुषविशेषमधिकृत्य किमपि ब्रूते सूत्रकारः-'ये विनवणाहिं' इत्यादि।
मूलम्
जे विनवणाहिऽजोसिया संतिन्नहिं समं वियाहिया। तम्हा उटुंति पासहा अदक्खु कामाई रोगवं॥२॥
१२
छायाये विज्ञापनाभिरजुष्टाः संतीणै: समं व्याख्याताः।
तस्मादृय पश्यत अद्राक्षुः कामान् रोगवत् ॥२॥ हैं। जो संवृतात्मा संयमानुष्ठान का पालन करता है वह जन्म जरा मरण आदि को नष्ट करके मोक्ष प्राप्त कर लेता है ॥१॥
जो दीक्षित होकर भी और संयम का अनुष्ठान करके भी उसी जन्म में मोक्ष प्राप्त नहीं कर पाता ऐसे पुरुषविशेष को लक्ष्य करके सूत्रकार कुछ कहते हैं- “जे विनवणाहिं इत्यादि
शब्दार्थ-'जे-ये' जो पुरुष 'विनवणाहि-विज्ञापनाभिः' स्त्रियोंसे 'अजोसिया-अजुष्टाः' सेवित नहीं है वे 'संतिन्नेहि-सतीर्णः' मुक्तपुरुषों के समं -समम्' समान 'वियाहिया-व्याख्याताः' कहे गये हैं 'तम्हा-तस्मात्' इसलिये 'उडूढं-ऊर्ध्वम्' स्त्री परित्याग के बादही 'पासह-पश्यत' मोक्षप्राप्त होता है ऐसा हे शिष्यो तुम जानो 'कामाई-कामान्' कामभोगों को जिन पुरुषों ने 'रोगवं -रोगवत्' रोगके तुल्य 'अदक्खु-अद्राक्षुः' देखे हैं वे मुक्त के तुल्य हैं ॥२॥ સંયમાનુષ્ઠાનનું પાલન કરે છે, તે જન્મ, જરા, મરણ આદિને નષ્ટ કરીને મોક્ષ પ્રાપ્ત કરી લે છે. જેના - જે પુરુષ દીક્ષા લઈને સંયમનું અનુષ્ઠાન કરવા છતાં પણ એજ જન્મમાં મોક્ષ પ્રાપ્ત કરી શકતા નથી, એવા પુરુષવિશેષને અનુલક્ષીને સૂત્રકાર કહે છે કે
“जे विनवणाहि" त्याह
शहाथ-- 'जे-ये ५३५ विन्नवणाहि-विज्ञापनाभिः' स्त्रीयोथी 'अजोसियाअजुष्टाः' सेवित नथी, ते 'सतिन्नेहि-संतीणः' मुश्त ५३षान। 'सम-समम्' समान 'वियाहिया-व्याख्याता' डेस छ 'तम्हा-तस्मात्' गेटमा भाटे 'उड्ढ-ऊधम्' स्त्री परित्याग पछी 'पासह-पश्यत' मोक्ष प्राप्त थाय छ मे शिष्यो! तभे से। 'कामाई-कामान्' मलागाने से पु३षाये 'रोग-रोगवत्' शाना तुल्य 'अदक्खुअद्राक्षुः' युछे ते भुतना तुल्य छे. ॥२॥
શ્રી સૂત્ર કૃતાંગ સૂત્રઃ ૧