Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti

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Page 637
________________ ६२४ सूत्रकृताङ्गसूत्र पुनरपि उपदेशान्तरमधिकृत्याह सूत्रकारः ‘एवं मत्ता' इत्यादि । एवं मत्ता महंतरं धम्ममिणं सहिया बहूजणा । गुरुणो छंदाणुवत्तगा विरया तिनमहोघमाहियं तिबेमि ॥३१॥ छायाएंव मत्वा महदन्तरं धर्ममेनं सहिता बहयो जनाः । गुरोश्छन्दाऽनुवर्तका विरता स्तीर्णा महौघमाख्यातम् ॥इति ब्रवीमि ॥३२॥ अन्वयार्थः (एवं) एयमनेन प्रकारेण (मत्ता) मत्वा (महंतरं) महदन्तरं सवर्थोत्तमम् (धम्ममिणं) धर्ममेनम् श्रुतचारित्रलक्षणमिमं धर्मम् स्वीकृत्य (सहिया) सहिताः= पुनः उपदेश करते हैं—“एवं मत्ता' इत्यादि । शब्दार्थ-एवं-एवम्' इस प्रकार 'मत्ता-मत्त्या' मानकर 'महंतरं-महदन्तरम्' सर्वोत्तम 'धम्ममिणं-धर्ममेनम्' इस श्रुतचारित्ररूप आहेत धर्म को स्वीकार करके 'सहिया--सहितः, ज्ञानादियुक्त 'गुरुणो छंदाणुवत्तगा-गुरोश्छंदानुवर्तकाः' गुरु के अभिप्रायानुसार वर्तनेवाले 'विरया--विरताः' पाप से रहित 'बहुजणा -बहुजना' अनेकजनोंने 'महोघं-महौघम्' संसारसागर को 'तिन्ना-तीर्णाः' संसार को पारकिया है 'आहियं-आख्यातम्' ऐसा में आपसे कहता हूँ 'त्तिबेमि-इतिब्रवीमि' वह तीर्थकरके मुख से सुना है, वही आपको कहता हूँ स्व कल्पित नहीं कहता॥३२॥ -अन्वयार्थइस प्रकार इस श्रुतचारित्र धर्म को सर्वोत्तम मान कर, ज्ञानादि से वे सूत्रा२ २0 उद्देशन। उपसा२ ४२ता मा प्रमाणे उपदेश मा छ--"एवं मत्ता" त्याहि.. शहाथ- 'एवं-एवम् २ प्रारे 'मत्ता-मत्या मानाने 'महतर-महदन्तरम्' सर्वोत्तम ‘धम्ममिण धर्म मेनम्' २॥ श्रुतया२३३५ मात धमनी स्वी२ शने 'सहिया-सहिताः' शान वगेरेथी युत 'गुरुणा छ दाणुवत्तगा-गुरोग्छ दानुवर्तकाः' गु३न। मभिप्राय अनुसार पतवावा 'विरया-विरताः' ५५थी २हित 'बहुजणा-बहुजना' मने वोये 'महाघ-महौघम' संसार सागरने तिन्नो-तीर्णाः' संसारने पा२ ४२ छ मेयु 'आहिय-आख्यातम् मापने छु 'त्तियेमि-इति ब्रवीमि त तीथ ४२ना મેઢાથી સાંભળ્યું છે તે જ આપને કહું છું મારી જાતે કલ્પના કરીને કહેતા નથી. ૩રા सूत्राथઆ પ્રકારના આ કૃતચારિત્ર રૂપ ધર્મને સર્વોત્તમ માનીને, જ્ઞાનાદિથી સંપન્ન. શ્રી સૂત્ર કૃતાંગ સૂત્રઃ ૧

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