Book Title: Agam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ दार्शनिक विषय आचारांगसूत्र में जैनदर्शन के मूलभूत तत्त्व गभित हैं, आचारांग के अध्ययन से यह स्पष्ट हो जाता है / उस युग के अन्य दार्शनिकों के विचार से श्रमण भगवान महावीर की विचारधारा प्रत्यधिक भिन्न थी। पाली-पिटकों के अध्ययन से भी यह स्पष्ट है कि भगवान् महावीर के समय अन्य अनेक श्रमण परम्पराएँ भी थीं। उन श्रमणों की विचारधारा क्रियावादी, प्रक्रियावादी के रूप में चल रही थीं। जो कर्म और उसके फल को मानते थे वे क्रियावादी थे, जो उसे नहीं मानते थे वे प्रक्रियावादी थे। भगवान महावीर और तथागत बुद्ध ये दोनों ही क्रियावादी थे। पर इन दोनों के क्रियावाद में अन्तर था। तथागत बुद्ध ने क्रियावाद को स्वीकार करते हए भी शाश्वत आत्मवाद को स्वीकार नहीं किया। जबकि भगवान महावीर ने आत्मवाद की मूल भित्ति पर ही क्रियावाद का भव्य-भवन खड़ा किया है। जो प्रात्मवादी है वह लोकवादी है और जो लोकवादी है वह कर्मवादी है, जो कर्मवादी है वह क्रियावादी है।' इस प्रकार भगवान महावीर का क्रियावाद तथागत बुद्ध से पृथक है। कर्मवाद को प्रधानता देने के कारण ईश्वर, ब्रह्म आदि से संसार की उत्पत्ति नहीं मानी गई। सृष्टि अनादि है, अतएव उसका कोई कर्ता नहीं है। भगवान महावीर ने स्पष्ट कहा-जब तक कर्म है, प्रारम्भ-समारम्भ है, हिसा है, तब तक संसार में परिभ्रमण है, कष्ट है। जब प्रात्मा कर्म-समारम्भ का पूर्ण रूप से परित्याग करता है, तब उसके संसार-परिभ्रमण परम्परा रुक जाती है / श्रमण वही है जिसने कर्म-समारम्भ का परित्याग किया है।' कर्म-समारम्भ का निषेध करने का मूल कारण यह है-इस विराट-विश्व में जितने भी जीव हैं उन्हें सुख-प्रिय है, कोई भी जीव दुःखों की इच्छा नहीं करता। जीवों को जो दुःख का निमित्त बनता है वही कर्म है, हिंसा है / यह जानना आवश्यक है कि जीव कौन है और कहाँ पर है ? आचारांग में जीव-विद्या को लेकर गहराई से चिन्तन हुआ है, पृथ्वी, पानी, अग्नि, वनस्पति, त्रसकाय और वायुकाय इन जीवों का परिचय कराया गया है", यहाँ पर यह स्मरण रखना चाहिए कि अन्य आगम साहित्य में वायु को पाँच स्थावरों के साथ गिना है, पर यहाँ पर त्रसकाय के पश्चात; यह किस अपेक्षा से अतिक्रम हया है यह चिन्तनीय है। और यह स्पष्ट किया है कि इन जीवनिकायों की हिंसा मानव अपने स्वार्थ के लिए करता है, पर उसे यह ज्ञात नहीं कि हिंसा से कितने कर्मों का बन्धन होता है / इसलिए सभी तीर्थंकरों ने एक ही उपदेश दिया कि तुम किसी भी प्राणी की हिंसा मत करो। हिंसा से सभी प्राणियों को अपार कष्ट होता है, इसलिए हिंसा कर्मबन्ध का एक कारण है। मौलिक रूप में सभी प्रात्माएँ समान स्वभाव वाली हैं, किन्तु कर्म-उपाधि के कारण उनके दो रूप हो जाते हैं-एक संसारी प्रात्मा और दूसरी मुक्त प्रात्मा / आत्मा तभी मुक्त बनती है जब वह कर्म से रहित बनती है। इसलिए कर्मविघात के मूल साधन ही प्राचारांग में प्राप्त होते हैं / आत्मा को विज्ञाता भी बताया है। आत्मा ज्ञानमय है। इस प्रकार की मान्यताएँ हमें उपनिषदों में भी प्राप्त होती हैं। भगवान महावीर ने लोक को ऊर्ध्व, मध्य और अधः इन तीन विभागों में विभक्त किया है। my 1. प्राचारांग सूत्र 13 प्राचारांग 109 प्राचारांग 6,13 प्राचारांग 80 5. प्राचारांग 48, 46,9,1,13,13 6. प्राचारांगसूत्र 126 प्राचारांगसूत्र-१६५ 8. प्राचारांगसूत्र-९३ [34] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org