Book Title: Adhyatma Navneet
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

View full book text
Previous | Next

Page 14
________________ अध्यात्मनवनीत तुम समयसार हम समयसार, सम्पूर्ण आत्मा समयसार । जो पहिचानें अपना स्वरूप, वे हो जावें परमात्मरूप ।।१२।। उनको ना कोई रहे चाह, वे अपना लेवें मोक्ष राह । वे करें आतमा को प्रसिद्ध, वे अल्पकाल में होंय सिद्ध ।।१३।। ॐ ह्रीं श्री श्री महावीरजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अय निर्वपामीति स्वाहा। (दोहा) भूतकाल प्रभु आपका, वह मेरा वर्तमान । वर्तमान जो आपका, वह भविष्य मम जान ।।१४।। पुष्पांजलि क्षिपेत् ___यदि तुझे भव दुःख से तिरना हो... भाई ! प्रात:काल उठते ही यदि तुझे वीतराग भगवान की याद नहीं आती, धर्मात्मा-मुनिराज याद नहीं आते और संसार के अखबार, व्यापार-धंधा अथवा स्त्री-पुत्र आदि की याद आती है तो तू ही विचार कि तेरी परिणति किस तरफ जा रही है ? संसार की तरफ या धर्म की तरफ...? जो परमभक्ति से जिनेन्द्र भगवान का दर्शन नहीं करता तो इसका अर्थ यह हुआ कि उसे वीतरागमार्ग नहीं रुचता और तिरने का निमित्त नहीं रुचता; परन्तु संसार में डूबने का निमित्त रुचता है। जैसे रुचि होती है, वैसे संबंधों की तरफ रुचि जाये बिना नहीं रहती; इसलिए कहते हैं कि वीतरागी जिनदेव को देखते ही जिसे अन्तर में भक्ति नहीं उलसती, पूजास्तुति का भाव उत्पन्न नहीं होता; वह गृहस्थ समुद्र के बीच पत्थर की नाव में बैठा है...। - गुरुदेव श्री कानजी स्वामी : श्रावकधर्म प्रकाश श्री सीमन्धर पूजन स्थापना (कुण्डलिया) भव-समुद्र सीमित कियो, सीमंधर भगवान । कर सीमित निजज्ञान को, प्रगट्यो पूरण ज्ञान ।। प्रगट्यो पूरण ज्ञान-वीर्य-दर्शन-सुखकारी। समयसार अविकार विमल चैतन्य-विहारी ।। अंतर्बल से किया प्रबल रिपु-मोह पराभव । अरे भवान्तक! करो अभय हर लो मेरा भव ।। ॐ ह्रीं श्री सीमंधरजिनेन्द्राय! अत्र अवतर अवतर संवीषट् । अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः। अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् । (जल) प्रभुवर तुम जल-से शीतल हो, जल-से निर्मल अविकारी हो। मिथ्यामल धोने को जिनवर, तुमही तो मल-परिहारी हो।। तुम सम्यग्ज्ञानजलोदधि हो, जलधर अमृत बरसाते हो। भविजन-मन-मीन-प्राणदायक,भविजन-मन-जलजखिलातेहो।। हे ज्ञानपयोनिधि सीमंधर! यह ज्ञान-प्रतीक समर्पित है। हो शान्त ज्ञेयनिष्टा मेरी, जल से चरणाम्बुज चर्चित है।। ॐ ह्रीं श्री सीमंधरजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा। (चंदन) चंदन सम चन्द्रवदन जिनवर, तुम चन्द्र-किरण से सुखकर हो। भव-तापनिकंदन हे प्रभुवर! सचमुच तुम ही भव-दुख-हर हो।। जल रहा हमारा अन्त:स्तल, प्रभु इच्छाओं की ज्वाला से। यह शान्त न होगा हे जिनवर, रे! विषयों की मधुशाला से ।। चिर अंतर्दाह मिटाने को, तुमही मलयागिरि चंदन हो । चंदन से चरचूँ चरणांबुज, भवतपहर ! शत शत वंदन हो।। ॐ ह्रीं श्री सीमंधरजिनेन्द्राय संसारतापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।

Loading...

Page Navigation
1 ... 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112