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अध्यात्मनवनीत
समयसार कलश पद्यानुवाद
(हरिगीत) कर्ता वही जो परिणमे परिणाम ही बस कर्म है। है परिणति ही क्रिया बस तीनों अभिन्न अखण्ड हैं ।।५१।। अनेक होकर एक है हो परिणमित बस एक ही। परिणाम हो बस एक का हो परिणति बस एक की।।५२।। परिणाम दो का एक ना मिलकर नहीं दो परिणमे । परिणति दो की एक ना बस क्योंकि दोनों भिन्न हैं ।।५३।। कर्ता नहीं दो एक के हों एक के दो कर्म ना। ना दो क्रियायें एक की हों क्योंकि एक अनेक ना ।।५४।। ‘पर को करूं मैं'- यह अहं अत्यन्त ही दुर्वार है। यह है अखण्ड अनादि से जीवन हुआ दुःस्वार है ।। भूतार्थनय के ग्रहण से यदि प्रलय को यह प्राप्त हो। तो ज्ञान के घनपिण्ड आतम को कभी न बंध हो ।।५५।।
(दोहा) परभावों को पर करे आतम आतमभाव। आप आपके भाव हैं पर के हैं परभाव ।।५६।।
(कुण्डलिया) नाज सम्मिलित घास को, ज्यों खावे गजराज । भिन्न स्वाद जाने नहीं, समझे मीठी घास ।। समझे मीठी घास नाज को न पहिचाने । त्यों अज्ञानी जीव निजातम स्वाद न जाने ।। पुण्य-पाप में धार एकता शून्य हिया है। अरे शिखरणी पी मानो गो दूध पिया है।।५७।।
(हरिगीत) अज्ञान से ही भागते मृग रेत को जल मानकर । अज्ञान से ही डरें तम में रस्सी विषधर मानकर ।। ज्ञानमय है जीव पर अज्ञान के कारण अहो । वातोद्वेलित उदधिवत कर्ता बने आकुलित हो ।।५८।। दूध जल में भेद जाने ज्ञान से बस हंस ज्यों। सद्ज्ञान से अपना-पराया भेद जाने जीव त्यों।। जानता तो है सभी करता नहीं कुछ आतमा। चैतन्य में आरूढ़ नित ही यह अचल परमातमा ।।५९।।
(आडिल्ल छन्द) उष्णोदक में उष्णता है अग्नि की।
और शीतलता सहज ही नीर की। व्यंजनों में है नमक का क्षारपन ।
ज्ञान ही यह जानता है विज्ञजन ।। क्रोधादिक के कर्तापन को छेदता।
अहंबुद्धि के मिथ्यातम को भेदता ।। इसी ज्ञान में प्रगटे निज शुद्धात्मा। __ अपने रस से भरा हुआ यह आतमा।।६०।।
(सोरठा) करे निजातम भाव, ज्ञान और अज्ञानमय। करे न पर के भाव, ज्ञानस्वभावी आतमा ।।६१।। ज्ञानस्वभावी जीव, करे ज्ञान से भिन्न क्या? कर्ता पर का जीव, जगतजनों का मोह यह ।।६२।।
(दोहा) यदि पुद्गलमय कर्म को करे न चेतनराय। कौन करे - अब यह कहें सुनो भरम नश