Book Title: Adhyatma Navneet
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 89
________________ १७० अष्टपाहुड़: बोधपाहुड़ पद्यानुवाद १७१ अध्यात्मनवनीत सद्ज्ञानदर्शन चेतनामय भावमय आचार्य को। अतिविनय वत्सलभाव से वंदन करो पूजन करो ।।१७।। व्रततप गुणों से शुद्ध सम्यक्भाव से पहिचानते । दें दीक्षा शिक्षा यही मुद्रा कही है अरिहंत की ।।१८।। निज आतमा के अनुभवी इन्द्रियजयी दृढ़ संयमी। जीती कषायें जिन्होंने वे मुनी जिनमुद्रा कही ।।१९।। संयमसहित निजध्यानमय शिवमार्ग ही प्राप्तव्य है। सद्ज्ञान से हो प्राप्त इससे ज्ञान ही ज्ञातव्य है ।।२०।। है असंभव लक्ष्यबिधना बाणबिन अभ्यासबिन । मुक्तिमग पाना असंभव ज्ञानबिन अभ्यासबिन ।।२१।। मुक्तिमग का लक्ष्य तो बस ज्ञान से ही प्राप्त हो। इसलिए सविनय करें जन-जन ज्ञान की आराधना ।।२२।। मति धनुष श्रुतज्ञान डोरी रत्नत्रय के बाण हों। परमार्थ का हो लक्ष्य तो मुनि मुक्तिमग नहीं चूकते ।।२३।। धर्मार्थ कामरु ज्ञान देवे देव जन उसको कहें। जो हो वही दे नीति यह धर्मार्थ कारण प्रव्रज्या ।।२४।। सब संग का परित्याग दीक्षा दयामय सद्धर्म हो। अर भव्यजन के उदय कारक मोह विरहित देव हों।।२५।। सम्यक्त्वव्रत से शुद्ध संवर सहित अर इन्द्रियजयी। निरपेक्ष आतमतीर्थ में स्नान कर परिशुद्ध हों ।।२६।। यदि शान्त हों परिणाम निर्मलभाव हों जिनमार्ग में। तो जान लो सम्यक्त्व संयम ज्ञान तप ही तीर्थ है ।।२७।। नाम थापन द्रव्य भावों और गुणपर्यायों से। च्यवन आगति संपदा से जानिये अरिहंत को ।।२८।। अनंत दर्शन ज्ञानयुत आरूढ़ अनुपम गुणों में। कर्माष्ट बंधन मुक्त जो वे ही अरे अरिहंत हैं।।२९।। जन्ममरणजरा चतुर्गतिगमन पापरु पुण्य सब। दोषोत्पादक कर्म नाशक ज्ञानमय अरिहंत हैं।।३०।। गुणथान मार्गणथान जीवस्थान अर पर्याप्ति से। और प्राणों से करो अरहंत की स्थापना ।।३१।। आठ प्रातिहार्य अरु चौंतीस अतिशय युक्त हों। सयोगकेवलि तेरवें गुणस्थान में अरहंत हों।।३२।। गति इन्द्रिय कायरु योग वेद कसाय ज्ञानरु संयमा। दर्शलेश्या भव्य सम्यक् संज्ञिना आहार हैं।।३३।। आहार तन मन इन्द्रि श्वासोच्छ्वास भाषा छहों इन । पर्याप्तियों से सहित उत्तम देव ही अरहंत हैं।।३४।। पंचेन्द्रियोंमन-वचन-तन बल और श्वासोच्छ्वास भी। अर आयु - इन दश प्राणों में अरिहंत की स्थापना ।।३५।। सैनी पंचेन्द्रियों नाम के इस चतुर्दश जीवस्थान में। अरहंत होते हैं सदा गुणसहित मानवलोक में ।।३६।। व्याधी बुढ़ापा श्वेद मल आहार अर नीहार से। थूक से दुर्गन्ध से मल-मूत्र से वे रहित हैं।।३७।। अठ सहस लक्षण सहित हैं अर रक्त है गोक्षीर सम । दश प्राण पर्याप्ती सहित सर्वांग सुन्दर देह है।।३८।। इसतरह अतिशयवान निर्मल गुणों से संयुक्त हैं। अर परम औदारिक श्री अरिहंत की नरदेह है।।३९।। राग-द्वेष विकार वर्जित विकल्पों से पार हैं। कषायमल से रहित केवलज्ञान से परिपूर्ण हैं।।४०।। सद्दृष्टि से सम्पन्न अर सब द्रव्य-गुण-पर्याय को। जो देखते अर जानते जिननाथ वे अरिहंत हैं।।४१।। शून्यघर तरुमूल वन उद्यान और मसान में। वसतिका में रहें या गिरिशिखर पर गिरिगुफा में ।।४२।।

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