Book Title: Adhyatma Navneet
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 92
________________ १७६ अध्यात्मनवनीत तूने अनन्ते जनम में कुमरण किये हे आत्मन् । अब तो समाधिमरण की भा भावना भवनाशनी ।।३२।। धरकर दिगम्बर वेष बारम्बार इस त्रैलोक में। स्थान कोई शेष ना जन्मा-मरा ना हो जहाँ ।।३३।। रे भावलिंग बिना जगत में अरे काल अनंत से। हा ! जन्म और जरा-मरण के दुःख भोगे जीव ने ।।३४।। परिणाम पुद्गल आयु एवं समय काल प्रदेश में। तनरूप पुद्गल ग्रह-त्यागे जीव ने इस लोक में ।।३५।। बिन आठ मध्यप्रदेश राजू तीन सौ चालीस त्रय। परिमाण के इस लोक में जन्मा-मरा न हो जहाँ ।।३६।। एक-एक अंगुलि में जहाँ पर छयानवें हों व्याधियाँ। तब पूर्ण तन में तुम बताओ होंगी कितनी व्याधियाँ ।।३७ ।। पूर्वभव में सहे परवश रोग विविध प्रकार के। अर सहोगे बहु भाँति अब इससे अधिक हम क्या कहें?।।३८ ।। कृमिकलित मजा-मांस-मजित मलिन महिला उदर में। नवमास तक कई बार आतम तू रहा है आजतक ।।३९।। तू रहा जननी उदर में जो जननि ने खाया-पिया। उच्छिष्ट उस आहार को ही तू वहाँ खाता रहा ।।४०।। शिशुकाल में अज्ञान से मल-मूत्र में सोता रहा। अब अधिक क्या बोलें अरे मल-मूत्र ही खाता रहा ।।४१।। यह देह तो बस हड्डियों श्रोणित बसा अर माँस का। है पिण्ड इसमें तो सदा मल-मूत्र का आवास है।।४२।। परिवारमुक्ती मुक्ति ना मुक्ती वही जो भाव से। यह जानकर हे आत्मन् ! तू छोड़ अन्तरवासना ।।४३।। बाहुबली ने मान बस घरवार ही सब छोड़कर । तप तपा बारह मास तक ना प्राप्ति केवलज्ञान की ।।४४।। अष्टपाहुड़: भावपाहुड़ पद्यानुवाद १७७ तज भोजनादि प्रवृत्तियाँ मुनिपिंगला रे भावविन । अरे मात्र निदान से पाया नहीं श्रमणत्व को ।।४५।। इस ही तरह मुनि वशिष्ठ भी इस लोक में थानक नहीं। रे एक मात्र निदान से घूमा नहीं हो वह जहाँ ।।४६।। चौरासिलख योनीविषं है नहीं कोई थल जहाँ। रे भावबिन द्रवलिंगधर घूमा नहीं हो तू जहाँ ।।४७।। भाव से ही लिंगी हो द्रवलिंग से लिंगी नहीं। लिंगभाव ही धारण करो द्रवलिंग से क्या कार्य हो ।।४८।। जिनलिंग धरकर बाहुमुनि निज अंतरंग कषाय से। दण्डकनगर को भस्मकर रौरव नरक में जा पड़े।।४९।। इस ही तरह द्रवलिंगी द्वीपायन मुनी भी भ्रष्ट हो। दुर्गति गमनकर दुख सहे अर अनंत संसारी हुए।।५०।। शुद्धबुद्धी भावलिंगी अंगनाओं से घिरे। होकर भी शिवकुमार मुनि संसारसागर तिर गये ।।५१।। अभविसेन ने केवलि प्ररूपित अंग ग्यारह भी पढ़े। पर भावलिंग बिना अरे संसारसागर न तिरे ।।५२।। कहँतक बतावें अरे महिमा तुम्हें भावविशद्धि की। तुषमास पद को घोखते शिवभूति केवलि हो गये ।।५३।। भाव से हो नग्न तन से नग्नता किस काम की। भाव एवं द्रव्य से हो नाश कर्मकलंक का ।।५४।। भाव विरहित नग्नता कुछ कार्यकारी है नहीं। यह जानकर भाओ निरन्तर आतमा की भावना ।।५५।। देहादि के संग से रहित अर रहित मान कषाय से। अर आतमारत सदा ही जो भावलिंगी श्रमण वह ।।५६।। निज आत्म का अवलम्ब ले मैं और सबको छोड़ दूँ। अर छोड़ ममताभाव को निर्ममत्व को धारण करूँ।।५७।।

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