Book Title: Adhyatma Navneet
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

View full book text
Previous | Next

Page 104
________________ २०१ योगसार पद्यानुवाद (हरिगीत) सब कर्ममल का नाश कर अर प्राप्त कर निज आत्मा। जो लीन निर्मल ध्यान में नमकर निकल परमातमा ।।१।। सब नाश कर घनघाति अरि अरिहंत पद को पा लिया। कर नमन उन जिनदेव को यह काव्यपथ अपना लिया॥२॥ है मोक्ष की अभिलाष अर भयभीत हैं संसार से। है समर्पित यह देशना उन भव्य जीवों के लिए।।३।। अनन्त है संसार-सागर जीव काल अनादि हैं। पर सुख नहीं, बस दुःख पाया मोह-मोहित जीव ने ।।४।। भयभीत है यदि चतुर्गति से त्याग दे परभाव को। परमातमा का ध्यान कर तो परमसुख को प्राप्त हो ।।५।। बहिरातमापन त्याग जो बन जाय अन्तर-आतमा। ध्यावे सदा परमातमा बन जाय वह परमातमा ।।६।। मिथ्यात्वमोहित जीव जो वह स्व-पर कोनहिं जानता। संसार-सागर में भ्रमें दृगमूढ़ वह बहिरातमा ।।७।। जो त्यागता परभाव को अर स्व-पर को पहिचानता। है वही पण्डित आत्मज्ञानी स्व-पर को जो जानता ।।८।। जो शुद्ध शिव जिन बुद्ध विष्णु निकल निर्मल शान्त है। बस है वही परमातमा जिनवर-कथन निर्धान्त है।।९।। जिनवर कहें 'देहादि पर' जो उन्हें ही निज मानता। संसार-सागर में भ्रमें वह आतमा बहिरातमा ॥१०॥ 'देहादि पर' जिनवर कहें ना हो सकें वे आतमा। यह जानकर तू मान ले निज आतमा को आतमा ।।११।। योगसार पद्यानुवाद तू पायगा निर्वाण माने आतमा को आतमा। पर भवभ्रमण हो यदी जाने देह को ही आतमा ।।१२।। आतमा को जानकर इच्छारहित यदि तप करे। तो परमगति को प्राप्त हो संसार में घूमे नहीं।।१३।। परिणाम से ही बंध है अर मोक्ष भी परिणाम से। यह जानकर हे भव्यजन ! परिणाम को पहिचानिये ।।१४।। निज आतमा जाने नहीं अर पुण्य ही करता रहे। तो सिद्धसुख पावे नहीं संसार में फिरता रहे ।।१५।। निज आतमा को जानना ही एक मुक्तीमार्ग है। कोइ अन्य कारण है नहीं हे योगिजन ! पहिचान लो ।।१६।। मार्गणा गुणथान का सब कथन है व्यवहार से। यदि चाहते परमेष्ठिपद तो आतमा को जान लो।।१७।। घर में रहे जो किन्तु हेयाहेय को पहिचानते। वे शीघ्र पावें मुक्तिपद जिनदेव को जो ध्यावते ।।१८।। तुम करो चिन्तन स्मरण अर ध्यान आतमदेव का। बस एक क्षण में परमपद की प्राप्ति हो इस कार्य से ।।१९।। मोक्षमग में योगिजन यह बात निश्चय जानिये। जिनदेव अर शुद्धातमा में भेद कुछ भी है नहीं।।२०।। सिद्धान्त का यह सार माया छोड़ योगी जान लो। जिनदेव अर शुद्धातमा में कोई अन्तर है नहीं ।।२१।। है आतमा परमातमा परमातमा ही आतमा। हे योगिजन यह जानकर कोई विकल्प करो नहीं ।।२२।। परिमाण लोकाकाश के जिसके प्रदेश असंख्य हैं। बस उसे जाने आतमा निर्वाण पावे शीघ्र ही ।।२३।। व्यवहार देहप्रमाण अर परमार्थ लोकप्रमाण है। जो जानते इस भांति वे निर्वाण पावें शीघ्र ही ।।२४।।

Loading...

Page Navigation
1 ... 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112