Book Title: Adhyatma Navneet
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 106
________________ २०५ २०४ अध्यात्मनवनीत 'जर्जरित है नरकसम यह देह' - ऐसा जानकर । यदि करो आतम भावना तो शीघ्र ही भवपार हो ।।५१।। धंधे पड़ा सारा जगत निज आतमा जाने नहीं। बस इसलिए ही जीव यह निर्वाण को पाता नहीं ।।५३।। परतंत्रता मन-इन्द्रियों की जाय फिर क्या पूछना। रुक जाँय राग-द्वेष तो हो उदित आतम भावना ।।५४।। जीव पुद्गल भिन्न हैं अर भिन्न सब व्यवहार है। यदि तजे पुद्गल गहे आतम सहज ही भवपार है ।।५५।। ना जानते-पहिचानते निज आतमा गहराई से। जिनवर कहें संसार सागर पार वे होते नहीं ।।५६।। रतन दीपक सूर्य घी दधि दूध पत्थर अर दहन । सुवर्ण रूपा स्फटिकमणि से जानिये निज आत्म को ।।५७।। शून्यनभसम भिन्न जाने देह को जो आतमा । सर्वज्ञता को प्राप्त हो अर शीघ्र पावे आतमा ।।५८।। आकाशसम ही शुद्ध है निज आतमा परमातमा। आकाश है जड़ किन्तु चेतन तत्त्व तेरा आतमा ।।५९।। नासाग्र दृष्टिवंत हो देखें अदेही जीव को। वे जनम धारण ना करें ना पिये जननी-क्षीर को ।।६०।। अशरीर को सुशरीर अर इस देह को जड़ जान लो। सब छोड़ मिथ्या-मोह इस जड़देह को पर मान लो ।।६१।। अपनत्व आतम में रहे तो कौन-सा फल ना मिले। बस होय केवलज्ञान एवं अखय आनन्द परिणमे ।।२।। परभाव को परित्याग जो अपनत्व आतम में करें। वे लहें केवलज्ञान अर संसार-सागर परिहरें।।६३।। हैं धन्य वे भगवन्त बुध परभाव जो परित्यागते । जो लोक और अलोक ज्ञायक आतमा को जानते ।।६४।। योगसार पद्यानुवाद सागार या अनगार हो पर आतमा में वास हो। जिनवर कहें अति शीघ्र ही वह परमसुख को प्राप्त हो ।।५।। विरले पुरुष ही जानते निज तत्त्व को विरले सुने । विरले करें निज ध्यान अर विरले पुरुष धारण करें।।६६।। सुख-दुःख के हैं हेतु परिजन किन्तु 'वे परमार्थ से। मेरे नहीं' - यह सोचने से मुक्त हों भवभार से ।।६७।। नागेन्द्र इन्द्र नरेन्द्र भी ना आतमा को शरण दें। यह जानकर हि मुनीन्द्रजन निज आतमा शरणा गहें।।१८।। जन्म-मरे सुख-दुःख भोगे नरक जावे एकला। अरे! मुक्तीमहल में भी जायेगा जिय एकला ॥६९।। यदि एकला है जीव तो परभाव सब परित्याग कर। ध्या ज्ञानमय निज आतमा अर शीघ्र शिवसुख प्राप्त कर ।।७०।। हर पाप को सारा जगत ही बोलता - यह पाप है। पर कोई विरला बुध कहे कि पुण्य भी तो पाप है।।७१।। लोह और स्वर्ण की बेड़ी में अन्तर है नहीं। शुभ-अशुभ छोड़ें ज्ञानिजन दोनों में अन्तर है नहीं।।७२।। हो जाय जब निर्ग्रन्थ मन निर्ग्रन्थ तब ही तू बने । निर्ग्रन्थ जब हो जाय तू तब मुक्ति का मारग मिले ।।७३।। जिस भाँति बड़ में बीज है उस भाँति बड़ भी बीज में। बस इसतरह त्रैलोक्य जिन आतम बसे इस देह में ।।७४।। जिनदेव जो मैं भी वही इस भाँति मन निर्धान्त हो। है यही शिवमग योगिजन! ना मंत्र एवं तंत्र है।।७५।। दो तीन चउ अर पाँच नव अर सात छह अर पाँच फिर । अर चार गुण जिसमें बसें उस आतमा को जानिए ।।७६।। 'दो छोड़कर दो गुण सहित परमातमा में जो वसे। शिवपद लहें वे शीघ्र ही' - इस भाँति सब जिनवर

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