Book Title: Adhyatma Navneet
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 109
________________ २१० अध्यात्मनवनीत पंचेन्द्रियी संज्ञी - असंज्ञी शेष सब असंज्ञि ही हैं । एकेन्द्रियी हैं सूक्ष्म - बादर पर्याप्तकेतर सभी हैं ।। १२ ।। भवलीन जिय विध चतुर्दश गुणथान मार्गणथान से । अशुद्धय से कहे हैं पर शुद्धनय से शुद्ध हैं ।। १३ ।। उत्पादव्ययसंयुक्त अन्तिम देह से कुछ न्यून हैं । लोकाग्रथित निष्कर्म शाश्वत अष्टगुणमय सिद्ध हैं ।। १४ ।। मूर्त पुद्गल किन्तु धर्माधर्मनभ अर काल भी । मूर्तिक नहीं हैं तथापि ये सभी द्रव्य अजीव हैं ।। १५ ।। थूल सूक्षम बंध तम संस्थान आतप भेद अर । उद्योत छाया शब्द पुद्गलद्रव्य के परिणाम हैं ।। १६ ।। स्वयं चलती मीन को जल निमित्त होता जिसतरह । चलते हुए जिय- पुद्गलों को धरमदरव उसीतरह ।। १७ ।। छाया निमित्त ज्यों गमनपूर्वक स्वयं ठहरे पथिक को । अधरम त्यों ठहरने में निमित्त पुद्गल - जीव को ।। १८ ।। आकाश वह जीवादि को अवकाश देने योग्य जो । आकाश के दो भेद हैं जो लोक और अलोक हैं ।। १९ ।। काल धर्माधर्म जिय पुद्गल रहें जिस क्षेत्र में । वह क्षेत्र ही बस लोक है अवशेष क्षेत्र अलोक है ।। २० ।। परीवर्तनरूप परिणामादि लक्षित काल जो । व्यवहार वह परमार्थ तो बस वर्तनामय जानिये ।। २१ ।। जानलो इस लोक के जो एक-एक प्रदेश पर । रत्नराशिवत् जड़े वे असंख्य कालाणु दरव ।। २२ ।। इसतरह ये छह दरब जो जीव और अजीवमय । कालबिन बाकी दरव ही पंच अस्तिकाय हैं ।। २३ ।। कायवत बहुप्रदेशी हैं इसलिए तो काय हैं । अस्तित्वमय हैं इसलिए अस्ति कहा जिनदेव ने ।। २४ ।। द्रव्यसंग्रह पद्यानुवाद हैं अनंत प्रदेश नभ जिय धर्म अधर्म असंख्य हैं । सब पुद्गलों के त्रिविध एवं काल का बस एक है ।। २५ ।। यद्यपि पुद्गल अणु है मात्र एक प्रदेशमय । पर बहुप्रदेशी कहें जिन स्कन्ध के उपचार से ।। २६ ।। एक अणु जितनी जगह घेरे प्रदेश कहें उसे । किन्तु एक प्रदेश में ही अनेक परमाणु रहें ।। २७ ।। बंध आस्रव पुण्य-पापरु मोक्ष संवर निर्जरा । विशेष जीव अजीव के संक्षेप में उनको कहें ।। २८ ।। कर्म आना द्रव्य आस्रव जीव के जिस भाव से । २११ हो कर्म आस्रव भाव वे ही भाव आस्रव जानिये ।। २९ ।। मिथ्यात्व - अविरति पाँच-पाँचरु पंचदश परमाद हैं । त्रय योग चार कषाय ये सब आस्रवों के भेद हैं ।। ३० ।। ज्ञानावरण आदिक करम के योग्य पुद्गल आगमन । है द्रव्य आस्रव विविधविध जो कहा जिनवर देव ने ।। ३१ ।। जिस भाव से हो कर्मबंधन भावबंध है भाव वह । द्रवबंध बंधन प्रदेशों का आतमा अर कर्म के ।। ३२ ।। बंध चार प्रकार प्रकृति प्रदेश थिति अनुभाग ये । योग से प्रकृति प्रदेश अनुभाग थिती कषाय से ||३३ ॥ कर्म रुकना द्रव्यसंवर और उसके हेतु जो । निज आतमा के भाव वे ही भावसंवर जानिये ।। ३४ ।। व्रत समिति गुप्ती धर्म परिषहजय तथा अनुप्रेक्षा । चारित्र भेद अनेक वे सब भावसंवररूप हैं ।। ३५ ।। द्रवनिर्जरा है कर्म झरना और उसके हेतु जो । तपरूप निर्मल भाव वे ही भावनिर्जर जानिये ।। ३६ ।। भावमुक्ती कर्मक्षय के हेतु निर्मलभाव हैं। अर द्रव्यमुक्ती कर्मरज से मुक्त होना जानिये ।। ३७ ।।

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