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मंगलाचरण समयसार अनुशीलन
(अडिल्ल छन्द) समयसार का एकमात्र प्रतिपाद्य जो।
आत्मख्याति का एकमात्र आराध्य जो ।। अज अनादि अनिधन अविचल सद्भाव जो।
त्रैकालिक ध्रुव सुखमय ज्ञायकभाव जो ।।१।। परमशुद्धनिश्चयनय का है ज्ञेय जो।।
सत्श्रद्धा का एकमात्र श्रद्धेय जो।। परमध्यान का ध्येय उसे ही ध्याऊँ मैं।
उसे प्राप्त कर उसमें ही रम जाऊँ मैं ।।२।। समयसार अरु आत्मख्याति के भाव को।
जो कुछ जैसा समझा है मैंने प्रभो।। उसी भाव को सहज सरल शैली विर्षे ।
विविध पक्ष से जन-जन के हित रख रहा ।।३।। इसमें भी है एक स्वार्थ मेरा प्रभो।
नित प्रति ही चित रहा करे इसमें विभो ।। मेरे मन का हो ऐसा ही परिणमन ।
मन का ही अनुकरण करें हित-मित वचन ।।४।। अपनापन हो निज आतम में नित्य ही।
अपना जाने निज आतम को नित्य ही।। रहे निरन्तर निज आतम में ही रमन ।
रहूँ निरन्तर निज आतम में ही मगन ।।५।। अन्य न कोई हो विकल्प हे आत्मन् ।
निज आतम का ज्ञान ध्यान चिन्तन मनन ।। गहराई से होय निरन्तर अध्ययन ।
निश-दिन ही बस रहे निरन्तर एक धुन ।।६।।
प्रवचनसार अनुशीलन
(अडिल्ल छन्द) ज्ञान-ज्ञेयमय निज आतम आराध्य है।
ज्ञान-ज्ञेयमय आतम ही प्रतिपाद्य है।। ज्ञान-ज्ञेयमय एक आतमा सार है।
जिनप्रवचन का सारहि प्रवचनसार है।।१।। लोकालोक प्रकाशित जिनके ज्ञान में।
किन्तु आतमा एक है जिनके ध्यान में ।। भव्यजनों को जिनका एक अधार है।
जिनकी ध्वनि का सार ये प्रवचनसार है।।२।। उनके वचनों में ही निशदिन जो रमें।
उनके ही वचनों का प्रतिपादन करें।। कुन्दकुन्द से उन गुरुओं को धन्य है।
उनके सदृश जग में कोई न अन्य है ।।३।। उन्हें नमन कर उनकी वाणी में रमूं।
जिसमें वे हैं जमे उसी में मैं जमूं। उनके ही पदचिह्नों पर अब मैं चलूँ।
उनकी ही वाणी का अनुशीलन करूँ।।४।। मेरा यह उपयोग इसी में नित रहे।
मेरा यह उपयोग सतत् निर्मल रहे। यही कामना जग समझे निजतत्त्व को।
यही भावना परमविशुद्धि प्राप्त हो ।।५।।