Book Title: Adhyatma Navneet
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 93
________________ १७९ १७८ अध्यात्मनवनीत निज ज्ञान में है आतमा दर्शन चरण में आतमा । और संवर योग प्रत्याख्यान में है आतमा ।।५८।। अरे मेरा एक शाश्वत आतमा दृगज्ञानमय । अवशेष जो हैं भाव वे संयोगलक्षण जानने ।।५९।। चतुर्गति से मुक्त हो यदि शाश्वत सुख चाहते। तो सदा निर्मलभाव से ध्याओ श्रमण शुद्धातमा ।।६।। जो जीव जीवस्वभाव को सुधभाव से संयुक्त हो। भावे सदा वह जीव ही पावे अमर निर्वाण को ।।६१।। चेतना से सहित ज्ञानस्वभावमय यह आतमा। कर्मक्षय का हेतु यह है यह कहें परमातमा ।।६२।। जो जीव के सद्भाव को स्वीकारते वे जीव ही। निर्देह निर्वच और निर्मल सिद्धपद को पावते ।।६३।। चैतन्य गुणमय आतमा अव्यक्त अरस अरूप है। जानो अलिंगग्रहण इसे यह अनिर्दिष्ट अशब्द है।।६४।। अज्ञान नाशक पंचविध जो ज्ञान उसकी भावना। भा भाव से हे आत्मन् ! तो स्वर्ग-शिवसुख प्राप्त हो ।।५।। श्रमण श्रावकपने का है मूल कारण भाव ही। क्योंकि पठन अर श्रवण से भी कुछ नहीं हो भावबिन ॥६६।। द्रव्य से तो नग्न सब नर नारकी तिर्यंच हैं। पर भावशुद्धि के बिना श्रमणत्व को पाते नहीं।।६७।। हों नग्न पर दुख सहें अर संसारसागर में रुलें। जिन भावना बिन नग्नतन भी बोधि को पाते नहीं।।६८।। मान मत्सर हास्य ईर्ष्या पापमय परिणाम हों। तो हे श्रमण तननगन होने से तुझे क्या साध्य है ।।६९।। हे आत्मन् जिनलिंगधर तू भावशुद्धी पूर्वक । भावशुद्धि के बिना जिनलिंग भी हो निरर्थक ।।७।। अष्टपाहुड़: भावपाहुड़ पद्यानुवाद सद्धर्म का न वास जहँ तहँ दोष का आवास है। है निरर्थक निष्फल सभी सद्ज्ञान बिन हे नटश्रमण ।।७१।। जिनभावना से रहित रागी संग से संयुक्त जो। निर्ग्रन्थ हों पर बोधि और समाधि को पाते नहीं।।७२।। मिथ्यात्व का परित्याग कर हो नग्न पहले भाव से। आज्ञा यही जिनदेव की फिर नग्न होवे द्रव्य से ।।७३।। हो भाव से अपवर्ग एवं भाव से ही स्वर्ग हो। पर मलिनमन अर भाव विरहित श्रमण तो तिर्यंच हो ।।७४।। सुभाव से ही प्राप्त करते बोधि अर चक्रेश पद । नर अमर विद्याधर नमें जिनको सदा कर जोड़कर ।।७५।। शुभ अशुभ एवं शुद्ध इसविधि भाव तीन प्रकार के। रौद्रात तो हैं अशुभ किन्तु शुभ धरममय ध्यान है।।७६।। निज आत्मा का आत्मा में रमण शुद्धस्वभाव है। जो श्रेष्ठ है वह आचरो जिनदेव का आदेश यह ।।७७।। गल गये जिसके मान मिथ्या मोह वह समचित्त ही। त्रिभुवन में सार ऐसे रत्नत्रय को प्राप्त हो ।।७८।। जो श्रमण विषयों से विरत वे सोलहकारणभावना। भा तीर्थंकर नामक प्रकृति को बाँधते अतिशीघ्र ही ।।७९।। तेरह क्रिया तप वार विध भा विविध मनवचकाय से। हे मुनिप्रवर ! मनमत्तगज वशकरो अंकुश ज्ञान से ।।८।। वस्त्र विरहित क्षिति शयन भिक्षा असन संयम सहित । जिनलिंग निर्मल भाव भावित भावना परिशुद्ध है ।।८१।। ज्यों श्रेष्ठ चंदन वृक्ष में हीरा रतन में श्रेष्ठ है। त्यों धर्म में भवभावनाशक एक ही जिनधर्म है।।८२।। व्रत सहित पूजा आदि सब जिनधर्म में सत्कर्म हैं। दृगमोह-क्षोभ विहीन निज परिणाम आतमधर्म है ।।८३।।

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